મધ્યકાલીન ગુજરાતી શબ્દકોશ/સંપાદકીય ભૂમિકા

Revision as of 03:18, 20 November 2024 by Meghdhanu (talk | contribs) (+1)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


संपादकीय भूमिका

आ कोश एक संकलित कोश छे. एमां मध्यकालीन कृतिओना अनेक संपादित ग्रंथोना शब्दकोशनी सामग्री भेगी करवामां आवी छे. पण ए सामग्री जेम मळी छे तेम मूकी देवामां नथी आवी. एमां हानोपादाननो विवेक करवामां आव्यो छे, सामग्रीने संशोधित करवामां आवी छे अने एमां पूर्ति पण करवामां आवी छे. देखीती रीते ज, आ माटे केटलीक नीतिरीतिओ पहेलेथी नक्की करवी पडे अने सामग्रीनी रजूआतनी पण चोक्कस पद्धति निपजाववी पडे. एवुं अहीं करवामां आव्युं छे पण, काम घणो लांबो समय चाल्युं अने संपादकनी मांदगीनो पण मोटो विक्षेप पाम्युं तेथी, एमां सो टका एकरूपता रही शकी नथी, जोके ए माटे शक्य सघळो प्रयास करवामां आव्यो छे. आ कोशनी सामग्रीनी पसंदगी, शुद्धिवृद्धि वगेरेनी नीतिरीति अने रजूआतनी पद्धति एवी विशिष्ट छे के एनी वीगते अने सदृष्टांत समजूती आपवी आवश्यक छे. कोशना चार विभागो - शब्दसामग्री, आधारग्रंथो, शब्दार्थ अने शब्दमूळ ने अनुलक्षीने ए समजूती आपीशुं.

शब्दसामग्री

अहीं आरंभे घाटां बीबांमां जे शब्द छे ते आधारग्रंथना शब्दकोशमांधी प्राप्त थयेलो मध्यकालीन शब्द छे. एक नियम तरीके अहीं एवा शब्दकोशो समाव्या छे, जे वर्णानुक्रमिक होय, जेमां शब्द कृतिमां क्यां वपरायो छे एनो निर्देश होय अने शब्दनो अर्थ पण साथे ज नोंधवामां आप्यो होय. एवा संपादित ग्रंथो पण मले छे के जेमां शब्दकोश वर्णानुक्रमिक न होय, जेम के के. का. शास्त्री अने चैतन्यबाळा ज. दिवेटिया संपादित ‘प्रेमानंदनां त्रण आख्यान’, शिवलाल जेसलपुरा संपादित ‘प्राचीन मध्यकालीन बारमासा संग्रह’ वगेरे (आमां शब्दो एमना प्रयोगना स्थानना क्रममां छे), अथवा शब्दकोश वर्णानुक्रमिक होय परंतु शब्दना प्रयोगस्थाननो निर्देश न होय, जेम के ह. चू. भायाणी, र. म. शाह अने गीताबहेन संपादित मेरुसुंदरगणिविरचित ‘शीलोपदेशमाला बालावबोध’ वगेरे, अथवा शब्दकोश वर्णानुक्रमिक होय, स्थाननिर्देश पण होय परंतु अर्थ दर्शाववामां आव्यो न होय, एने माटे टिप्पणनो हवालो आपवामां आव्यो होय, जेम के के. ह. ध्रुव संपादित भालणकृत ‘कादंबरी उत्तर भाग’, मंजुलाल मजमुदार संपादित प्रेमानंदकृत ‘रणयज्ञ’ वगेरे. आवा शब्दकोशो आ संकलित कोशमां समाव्या नथी अने पंक्तिक्रमे अपायेला टिप्पणोमां रहेला शब्दार्थोनो समावेश तो स्वाभाविक रीते ज न होय. आमां एक अपवाद कर्यो छे ते ‘उक्तिरत्नाकर’नो. एमां वर्णानुक्रमिक शब्दसूचि छे ने स्थाननिर्देश पण छे पण अर्थ तो निर्दिष्ट स्थाने आपणे जोवानो रहे छे. आ ग्रंथनो अपवाद करवानुं कारण ए हतुं के ए मध्यकाळमां ज रचायेलो शब्दकोश छे अने तेथी मध्यकाळमां जा शब्दो कया अर्थमां वपराता हता तेनी प्रमाणभूत माहिती एमांथी मळे छे. एना आ रीतना महत्त्वने अनुलक्षीने, डॉ. भायाणीना सूचनथी, आ अपवाद कर्यो छे. छेवटे, आ कोशमां पाछळ यादी आपी छे ते मुजब ६६ संपादित ग्रंथोना ७१ शब्दकोशो (चार ग्रंथोमां अलगअलग कृतिओना अलग शब्दकोशो आपेला छे) संकलित करेला छे. बे ग्रंथोनी बीजी आवृत्तिना शब्दकोशोने पण उपयोगमां लीधा छे. आ बधा शब्दकोशो एक दृष्टिथी तैयार थयेला न ज होय. ए ग्रंथोनो हवे पछी परिचय आप्यो छे ते मुजब केटलाक संपादकोए उदारताथी शब्दो लीधा छे सामान्य उच्चारभेदवाळा शब्दो लीधा छे अने अत्यारे वपराशमां होय एवा थोडा शब्दो पण आववा दीधा छे, तो केटलाक संपादकोए शब्दपसंदगी चुस्त मध्यकालीनताना धोरणे करी छे अने सामान्य उच्चारभेदवाळा शब्दो टाळ्या छे. कोईए विभक्ति के काळ-अर्थना रूपभेदोने पण कोशमां दाखल थवा दीधा छे तो कोईए विभक्तिप्रत्ययो टाळ्या छे अने क्रियापदोनुं कोई एक ज रूप - विध्यर्थ-कृदंतनुं रूप (‘करवुं’) के धातुरूप (‘कर-’) आपवानुं राख्युं छे. आनी पाछळनां प्रयोजनो जुदांजुदां पण रह्यां छे. अंग्रेजी भाषाना माध्यमथी ग्रंथो तैयार थया छे त्यां संपादकनी नजर सामे गुजराती भाषा न जाणतो होय एवो वर्ग पण होवाथी एमणे सर्वग्राही थवानी नेम राखी छे, तो बीजा केटलाके सहज उदारताथी, सर्वसंग्रहनी वृत्तिथी आम कर्युं छे. उपयोगमां लेवायेला ग्रंथोमां भले शब्दसामग्री परत्वे एकरूपता न होय, आ शब्दकोशना संपादके तो ए निपजाववी ज रहे. एम करवा जतां केटलाक कोयडाओ ऊभा थाय एनो सामनो पण करवो रह्यो अने घटतो उकेल शोधवो रह्यो. एक नियम तरीके अहीं (१) आजना शब्दथी साव सामान्य उच्चारभेद दर्शावता ने तेथी सहेलाईथी समजाई जता शब्दो छोडी देवामां आव्या छे. जेम के, अंत्यस्थाने ‘ए’ ‘ओ’ ‘औ’ने बदले ‘अइ’ ‘अउ’वाळा शब्दो (अनइ, घोडउ), ‘श’ने स्थाने ‘स’वाळा शब्दो (निरास, प्रकासुं), ‘ळ’ने स्थाने ‘ल’ वाळा शब्दो (उजलउं), संयुक्त व्यंजनना विश्लेषवाळा शब्दो (निरमल), ‘ह’ श्रुतिवाळा शब्दो (अह्मारु) वगेरे. आम छतां आवा एकथी वधु उच्चारंभेदो एकसाथे होय के अन्य कोई शब्द साथे संभ्रम थवानी शक्यता होय के शब्द कंईक अपरिचित बनी जतो. होय त्यां आवा शब्दो साचव्या पण छे. (२) अन्य केटलाक उच्चारभेदवाळा शब्दो साचवी लीधा छे. जेम के अनंत्य स्थाने ‘ए’ ‘ओ’ ‘औ’ने बदले ‘अइ’ ‘अउ’वाळा शब्दो (पईसइ, कउण), ‘न’ने बदले ‘ण’वाळा शब्दो (अणसण, अणुसरइ), ‘य’ श्रुतिवाळा शब्दो (अत्य अति), ‘इ’कारवाळा शब्दो (लिखइ, राति), ‘अय’ने बदले ‘ए’ वाळा शब्दो (अतिशे), संयुक्त व्यंजनने बदले एकवडा व्यंजनवाळा शब्दो (उछेद, उधार), अंत्यस्थाने अंगविस्तारवाळा शब्दो (अमीअ) वगेरे. आथी वधारे वर्णभेदवाळा शब्दो तो स्वाभाविक रीते ज अहीं होय. (३) सहेलाईथी समजाय पण अत्यारे ए रूपे न वपराता शब्दो पण साचव्या छे. जेम के ‘करतउ’ शब्द नथी लीधो पण ‘अकरतउ’ लीधो छे. ए ज रीते ‘अचींतविउ’ शब्द राख्यो छे, केम के आपणे अत्यारे ‘अणचिंतव्यु’ बोलीए छीए पण ‘अचिंतव्युं’ नहीं. सामान्य रीते जेने क्रियापद तरीके आपणे वापरता नथी तेवा ‘आनंदए’ जेवा शब्दो पण लीधा छे. ‘उजलउं’ नहीं पण ‘उजल’ अहीं मळशे ते पण आ कारणे. (४) अत्यारे व्यापक रीते प्रचलित शब्दो तो न ज लेवाना होय पण एनो विवेक एटलोबधो सरळ नथी बन्यो. अत्यारे प्रचलित शब्दो विशिष्ट अर्थछाया धरावता देखाया छे ते साचव्या ज छे. अहीं ‘अटकवुं’ ‘आदरवुं’ ‘आछउं (आछु)’ ‘अखाडउ’ ‘अंग’ ‘अंत’ वगेरे शब्दो जोवा मळशे ते आ कारणे. जे संस्कृत शब्दो अत्यारे काव्यमां वपराता होय पण व्यापक रीते परिचित होवानुं शंकास्पद होय ते छोडवानुं योग्य गण्युं नथी. सामे, तळपदा व्यवहारमां आ के ते प्रदेशमां अत्यारे वपराता पण शिष्ट वर्गने अजाण्या होवानो संभव जणायो तेवा शब्दोने पण छोड्या नथी. आ कारणे, अत्यारना शब्दकोशोमां जोवा मळता केटलाक शब्दो पण आ कोशमां मळशे. केटलीक वार तो एवुं बन्युं छे के अत्यारनो शब्दकोश पण आ शब्द नोंधे छे ए संपादकने मोडेथी जाणवा मळेलुं. एटले के ए शब्द हजु सुधी क्यांक टकेलो छे एवी एनेय खबर नहोती. अत्यारे प्रचलित केटलाक जैन शब्दो साचववानुं राख्युं छे समग्र जैनेतर समाजने ए परिचित न पण होय एवा ख्यालथी. (५) ‘आनंदघनबाविशी’ परना ज्ञानविमलसूरिना स्तबकमां जोवा मळता बौद्ध, न्याय वगेरे दर्शनोना अत्यंत पारिभाषिक शब्दो अहीं लीधा नथी केम के साहित्यमां अन्यत्र ए जोवा मळवानो संभव भाग्ये ज छे अने ए शब्दो विशिष्ट समजूती मागे एवा छे. ब्राह्मण अने जैन परंपराना केटलाक पारिभाषिक शब्दो उपयोगी जणावाथी साचव्या पण छे जैन दर्शनना खास, केमके ए विशाळ जनसमाजने अजाण्या होवानी शक्यता छे. (६) पात्रनामो सामान्य रीते लीधां नथी. ऐतिहासिक नामो ने स्थळादिनां नामो महत्त्वनां होय ते राखवानुं वलण रह्युं छे पण एमां पूरी सुसंगतता साचवी शकाई नथी. जेम के, महीराजकृत ‘नलदवदंती रास’ मां आवतां बधां ज देशनामो आ कोशमां समावेश पाम्यां छे. (७) हिंदी भाषाना ‘इसउं’ ‘इसिउं’ जेवा आजे परिचित शब्दो पण मध्यकालीन भाषाना अंगभूत गणी रहेवा दीधा छे. (८) संपादित ग्रंथोमां एवी कृतिओ पण संग्रहाई छे जेनी भाषा प्राकृत के अपभ्रंश छे. एना शब्दो पण ते-ते ग्रंथना शब्दकोशमां आवेला छे. आ शब्दोने गुजराती भाषाना शब्दो केटले अंशे गणवा ए एक विचारणीय मुद्दो छे. आम छतां, गुजराती भाषाने ए भाषास्वरूप साथे निकटनो संबंध छे, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशना अनुसंधानमां मध्यकालीन गुजराती विकसी छे, तेथी एवा शब्दोने आ संकलित कोशमां स्थान आपवानुं इष्ट गण्युं छे. परंतु ‘प्रेमानंदनी काव्यकृतिओ’मां संग्रहायेल ‘शामळदासनो विवाह’ जेवी कोई कृति अर्वाचीन होवानुं निश्चित थाय छे तेना शब्दोने आ संकलित कोशमां स्थान आप्युं नथी, केम के अर्वाचीन कृतिओना शब्दो लेवानुं आ कोशनी मूळभूत कल्पनाथी विरुद्ध गणाय. (९) मूळ संपादित ग्रंथोमां जे शब्दोना अर्थ आपी शकाया न होय ने संकलित कोशना संपादक पण आपी शके तेम न होय तेवा शब्दो प्राथमिक तबक्के छोडी दीघा हता. पछी एम लाग्युं के आ शब्दो तो साचवी लेवा जोईए. एथी, छोडी दीघेला शब्दो पाछा दाखल करवानो श्रम कर्यो छे, पण ए काम पूरी चोकसाईथी थई शक्युं हशे के केम ते विशे शंका छे. (१०) एवुं तो बने ज के जुदाजुदा ग्रंथोमांथी रूपभेदे एक ज शब्द प्राप्त थाय (कोई संपादित ग्रंथमां तो एक ज शब्दना एवा रूपभेदो अलग नोंधायेला छे). आवा रूपभेदो साचववा जतां आ संकलित कोशमां मोटुं जंगल ज ऊभुं थाय. ए रूपभेदोनुं सरलीकरण करवुं अनिवार्य हतुं. ए माटे एक सामान्य रूप ज स्वीकारवानुं धोरण अहीं अपनाव्युं छे. नामिक रूपो परत्वे सामान्य रीते विभक्तिप्रत्यय विनानुं रूप आपवानुं राख्युं छे. पण कोई एक ज ग्रंथमांथी, कोई एक ज विभक्तिप्रत्ययवाळु रूप आव्युं होय तो ते एम ने एम रही गयानुं पण देखाशे. उपरांत, थोडी बदलाती अर्थछाया, बीजा कोई शब्द साथे संभ्रम थवानी स्थिति के एवा कोई कारणथी विभक्तिप्रत्यय विनानुं ने विभक्त प्रत्ययवाळुं एम बन्ने रूप साचव्यां छे. जेम के ‘अकाज’ अने ‘अकाजि’. क्रियापदोनां रूपोनो कोयडो जरा वधारे अटपटो बन्यो छे. विविध काळ-अर्थनां रूपो एमां प्राप्त थाय, जेम के ‘भिलइ’ ‘भिलिउं’ ‘भिली’ ‘भिल्यउ’. केटलाक संपादकोए विध्यर्धकृदंतनां ‘वुं’वाळां रूपो (जेम के ‘भिलवुं’) आप्यां छे, तो कोईए मूळ धातु ज (‘भिल-’) आपेल छे. आ स्थितिमां सामान्य रीते कोई एक ज रूप स्वीकारवानुं राख्युं छे, बहुधा ‘भिलइ’ ए वर्तमानकाळनुं रूप, तो केटलीक वार विध्यर्थकृदंतवाळुं रूप के मूळ धातु. आम छतां अहीं पण कोई एक ज रूप प्राप्त थयुं छे त्यां एम ने एम राख्युं छे अने आवश्यकता जणाई त्यां एकथी वधु रूपो पण रहेवा दीधां छे. एक ज रूप अंत्य स्वरना भेदथी पण आवी शके छे, जेम के ‘पूगइ’ ‘पूगे’ ‘पूगै’. आवुं बन्युं छे त्यां सामान्य रीते जूनुं ‘पूगइ’ ए रूप आपवानुं राख्युं छे ने आवश्यकता जणाई त्यां रूपभेद साचव्या पण छे. रूपभेद के जोडणीभेदनुं आवुं सरलीकरण के एकीकरण करीए एटले एक कोयडो तो ऊभो थाय. एकीकृत रूपनी सामे आधारग्रंथो तो बधा निर्देशाय, जेमां वास्तविक रीते ए एकीकृत रूप नहोतुं, जुदां रूपो हतां. एथी जे-ते ग्रंथमां ए शब्द शोधवामां अगवड ऊभी थाय. ‘भिल्यउ’ ‘भिलइ’ मां समाई जाय एटले जे ग्रंथमां ‘भिल्यउ’ होय त्यां पण आपणे ‘भिलइ’ ज शोध्या करीए अने ए आपणने न मळे. आपणे याद राखवुं पडे के क्रियापदरूप अन्य पण होई शके छे. आ अगवडमांधी बचवानो कोई रस्तो नहोतो ने संकलित कोशथी आगळ जनार जूज अभ्यासीओने ज आ अगवड वेठवानो वारो आवशे एवी समजण रही छे, तेथी रूपवैविध्य टाळीने कोई एक ज रूप आपवामां कशो बाध मान्यो नथी. क्रियापदोमां, अलबत्त, कर्मणि, प्रेरक ने कृदंतनां रूपो अलग साचव्यां छे. मूळभूत रीते शब्द अत्यारे वपराशमां होय त्यां पण आ रूपो अत्यारथी जुदां पडतां देखायां तो ए खास साचव्यां छे. जेम के ‘रहइ’ लेवानी जरूर नहीं, पण ‘रहतउ’ (अत्यारे ‘रहेतो’), ‘रहितउं’ ‘रहीतूं’ ‘रहीइ’ (कर्मणि), ‘रहिवउं’ ‘रहाविउ’ ए रूपो लीधां छे. (११) ज्यां एक ज लिंगनुं रूप मळ्युं छे त्यां एम ने एम राख्युं छे, परंतु भिन्नभिन्न लिंगनां रूपो मळ्यां त्यां एक ज लिंगनुं सामान्य रीते नपुंसकलिंगनुं रूप राख्युं छे. आम छतां आवश्यकता लागी त्यां भिन्नभिन्न लिंगनां रूपो साचव्यां छे. एक नियम तरीके आवुं बधुं विचारेलुं छे, छतां, आरंभमां कह्युं तेम, एमां सो टका एकरूपता रही हशे एवी खातरी आपी शकाय तेम नथी. थयुं छे एवुं के साव प्राथमिक तबक्के मारा अंगत रसथी हुं प्राप्त शब्दकोशोमांथी कार्ड करावतो हतो त्यारे उच्चारभेदवाळा तथा संस्कृत अने अन्य घणा मने परिचित लागता शब्दो काढी नाखतो हतो. पछीथी प्राकृत जैन विद्याविकास फंडने आश्रये में विधिसर रीते योजना हाथमां लीधी त्यारे शब्दपसंदगीनी बाबतमां डॉ. हरिवल्लभ भायाणीनी साथे चर्चा करी. एमणे थोडा उदार थवानी भलामण करी. खास करीने एटला माटे के आपणे त्यां मध्यकालीन भाषानुं ज्ञान घणुं ओछु छे ने थोडा वधु शब्दो हशे तो ए उपयोगी थशे ज. आम जे पुस्तकोनां कार्ड थई गयां हतां एमां केटलाक शब्दो फरीने दाखल करवानी स्थिति आवी. एनो प्रयत्न तो कर्यो छे, पण ए प्रयत्न पूरो सफळ थयो हशे, एकसरखो नियम प्रवर्त्यो हशे एम कहेतुं मुश्केल छे. संपादित ग्रंथोमांथी शब्दो लेवा जतां सौथी वधु मूंझवनारी बाबत तो ए बनी छे के एमां कृतिपाठना भूलभरेला वाचनने कारणे अथवा पाठनी भ्रष्टताने कारणे केटलाक खोटा शब्दो आवी गया छे. शब्द ज खोटो होय तो आ संकलित कोशमां केवी रीते आवी शके ? एटले आरंभमां तो आवा शब्दो छोडी देवानुं राख्युं हतुं. पण पछी देखायुं के केटलेक स्थाने पाठदोष के वाचनदोष तो पकडाय छे, पाठांतरनी मददथी के तर्कथी पाठने सुधारी शकाय छे, ने परिणामे मध्यकाळनो एक लाक्षणिक शब्द हाथमां आवे छे. ए शब्द केटलीक वार अन्यत्रथी भाग्ये ज मळतो होय. आवा शब्दने जतो करवानुं जिगर केम चाले ? पण आ रीते हाथमां आवेलो शब्द कंई मूळ संपादित ग्रंथमां न होय. तो एने आ संकलित कोशमां मूळ ग्रंथनो आधार आपीने केवी रीते मूकी शकाय? मथामण करतां आ गूंचनो मार्ग मळ्यो. मूळ ग्रंथनो शब्द तो राखवो ज ने कौंसमां साचो शब्द मूकवो. ए साचा शब्दने पाछो एना वर्णक्रममां मूकवो अने त्यां मूळ ग्रंथना शब्दनो प्रतिनिर्देश करवो. दाखलाओथी आ वात बराबर समजाशे. मूळ आधारग्रंथमां ‘उथउ’ शब्द नोंधायेलो छे. पण संदर्भमां ‘ओघो’, जैन मुनिनुं रजोहरण’ ए अर्थ स्पष्ट छे तेथी पाठ ‘उघउ’ ज होवो जोईए. ‘उथउ’ ए हस्तप्रतनो भ्रष्ट पाठ होय के संपादकनो वाचनदोष होय. आ हकीकतने आ संकलित कोशमां आ रीते रजू करी छे : उघउ जुओ उथउ उघउ [उघउ] उपबा. [ओघो, जैन मुनिनुं रजोहरण] शब्दनी पूर्व मूकेली फूदडी ते पाठ खोटो के शंकास्पद होवानी निशानी छे. [ ] चोरस कौंसमां मूकेल छे ते पाठ आ संकलित कोशना संपादके विचारेलो छे. संकलित कोशना संपादकने पोते विचारेला पाठनी खातरी न होय एवुं पण बने. पण मूळ पाठ संगत न लागतां एक तर्क रूपे बीजो पाठ मूक्यो होय. त्यां एनी पूर्वे पण फूदडी पूकी छे. जेम के, आरेणि [आराडि] उपवी [उपची] केटलीक वार पाठांतरमांथी ज साचो पाठ सांपड्यो छे. ते ( ) गोळ कौंसमां ज मूकेल छे. जेम के, करमि (करमइता) घाडि सईनी (धाडि सईनी) खोटा वाचनमां केटलीक वार खोटो शब्दभंग रहेलो होय छे. जेम के, ‘अनुभाव’ ते खरेखर ‘अनु भाव’ (=अने भाव) छे. ‘घडी अरध घडी आल ज करे’ ए पंक्तिमां संपादके ‘आल’ शब्द वांच्यो छे ते खरेखर ‘घडीआल’ (समय दर्शाववा वगाडवामां आवती झालर) वांचवानो छे. अहीं पण खरुं वाचन ( ) गोळ कौंसमां आपेल छे : अनुभाव (अनु भाव) आल (घडीआल) कोई वार खोटो शब्दभंग बे शब्दोने स्पर्शे छे. ‘तपि उतारीउ अचट’ एम वांची संपादके ‘अचट’ शब्द शब्दकोशमां लीधो होय, परंतु ‘तपि उतारी उअचट’ एम ‘उअचट’ शब्द वांचवो वधु योग्य होय. ‘दीवटी आकडिइ’ एम संपादके वांच्युं होय अने ए बे शब्दोने शब्दकोशमां दाखल कर्या होय, परंतु ‘दीवटीआ कडिइ’ एम वांचवुं योग्य होय तेथी बन्ने शब्दो बदलाई जाय. आ छेल्ला दाखलामां शब्दो आ रीते आपवाना थया छे : आकडिइ (दीवटीआ कडिइ) कडइ जुओ आकडिइ दीवटी (दीवटीआ) केटलीक वार एवुं बन्युं छे के मूळ ग्रंथना संपादके आपेलो शब्द आम बराबर होय परंतु एटलाथी अर्थ बराबर न थतो होय के खोटो थतो होय ने मूळमांथी वधारे संदर्भ लेवो जरूरी होय. ‘इक आछण पानी छांडती’मां संपादके ‘इक आछण’ ने शब्दकोशमां लीघेल होय पण ‘आछण’नो संबंध ‘इक’ साथे नहीं, ‘पाणी’ साथे वास्तविक रीते होय, ‘आछण पाणी’ एटले ‘नितरामणनुं पाणी’ एवो अर्थ होय. त्यां ‘इक आछण’ ने स्थाने ‘इक आछण पाणी छांडती’ पूरी उक्ति आपवानी जरूर पडे. केटलीक वार शब्दने अलग जोवा करतां रूढिप्रयोगना भाग रूपे जोवानुं वधारे अर्थपूर्ण होय छे. त्यां एम करवानुं पण आ संकलित कोशमां इष्ट गण्युं छे. जेम के, अउले (अउले खाले वहे) अघर (अधर किया) अलजो (अलजो जाय) अहीं नोंधवुं जोईए के कोई वार कौंसमां उक्तिनो वधारानो अंश मूकवानुं के पाठ सुधारवानुं मूळ संपादके पण कर्युं होय छे. जो के झाझे ठेकाणे तो आवुं आ संकलित कोशना संपादके ज करवानुं थयुं छे. प्राथमिक तबक्के छोडी देवायेला खोटा शब्दो बधा ज चोकसाईथी पाछा दाखल नहीं थई शक्या होय. ते उपरांत जेनां पाठांतरो कशो प्रकाश पाडनारां नहोतां के जेनो कोई अर्थ बेसाडी शकातो नहोतो एवा भ्रष्ट जणायेला केटलाक शब्दो तो आ संकलित कोशमां छोड्या ज छे. ज्यां भ्रष्ट पाठने सुधारतां हाथमां आवतो शब्द अत्यारे परिचित होय त्यां ए पण न ज लेवानो होय. जेम के ‘सीगरि’ने स्थाने ‘सागरि’ पाठ नक्की थतो होय, तो ‘सीगरि’ शब्द अहीं लेवानी जरूर होय नहीं. मूळ आधारग्रंथोना शब्दकोशोमां केटलीक छापभूलो ने सरतचूको पण पकडाई छे. शब्दकोशमां ‘अखर’, ‘उतरीअ’, ‘कडुक’ ने ‘जटाजूटी’ होय पण कृतिपाठमां ‘अखेर’, ‘उत्तरीअ’, ‘कटुक’ ने ‘जटाजूटा’ होय. आवां स्थानोए केटलीक वार शब्द आ संकलित कोशमां सीधो सुधारीने ज मूक्यो छे; तो केटलीक वार मूळ शब्द राखी सुधारेलो शब्द बाजुमां ( ) कौंसमां मूक्यो छे. ज्यां शब्द सीधो सुधारी लेवामां आव्यो छे त्यां मूळ ग्रंथमां शब्द ए रूपे न मळे ए देखीतुं छे. पण अभ्यासीने मूळ शब्द पकडी पाडतां मुश्केली नहीं पडे. ज्यां संभ्रमनी शक्यता होय त्यां मूळ शब्द ने सुधारेलो शब्द बन्ने आप्या ज छे. मध्यकालीन लेखनपद्धतिमां ‘ख’ ‘ष’ तरीके लखातो, ‘ज’ने स्थाने ‘य’ लखातो अने ‘ब’-’व’ वच्चे अभेद जेवुं हतुं. ‘वीसळदेव रासो’ना संपादके ‘ख’ उच्चारणवाळा शब्दो ‘ष’मां ज आप्या छे, तो ‘उक्तिरत्नाकर’मां एवा शब्दो ‘ख’मां तेमज ‘ष’मां पण अपायेला छे. अलबत्त, मोटा भागना कोशो आवा शब्दो ‘ख’मां ज बतावे छे. आ संकलित कोशमां आवा शब्दो ‘ख’मां लई लीधा छे, सिवाय के ‘ष’ उच्चारण ज ज्यां अभिप्रेत होय. आ संकलित कोशमां ‘ख’थी आरंभाता शब्दो मूळ ग्रंथमां शोधती वखते आ स्थिति लक्षमां राखवानी रहेशे. ‘व’ने स्थाने ‘ब’ के ‘ब’ने स्थाने ‘व’ मूकवाथी शब्द वधारे स्पष्ट थतो होय तो अहीं एवुं कर्युं छे, मूळ शब्दनी बाजुमां सुधारेलो शब्द मूक्यो छे ने सुधारेलो शब्द एना वर्णक्रममां मूकी प्रतिनिर्देश कर्यो छे. जेम के, अबंझ [अवंझ] अवंझ जुओ अबंझ ‘ज’ने स्थाने ‘य’ लखायो होय त्यां पण आयुं कर्युं छे. जेम के, जमिवउं जुओ यमिवउं जसउ जुओ यसउ यमिवउं [जमिवउं] यसउ [जसउ] छेल्ले, आ संकलित कोशमां शब्दोनो जे वर्णानुक्रम गोठववामां आव्यो छे ते विशे थोडी स्पष्टता जरूरी छे. एक महत्त्वनो फेरफार करवामां आव्यो छे ते ‘ळ’ना स्थान परत्वे. गुजरातीमां ‘ळ’ वर्णमाळामां छेल्ले मुकाय छे. परंतु घणा शब्दोमां ‘ल’ ‘ळ’ वैकल्पिक छे. जेम के कल कळ, कलियुग कळियुग, घडियाल घडियाळ. उपरांत, मध्यकाळनी लिपिमां तो ‘ल’ ज हतो ने ‘ळ’ पण ‘ल’ चिह्नथी दर्शावातो. केटलाक संपादकोए ‘ल’नो ‘ळ’ कर्यो होय, केटलाके न कर्यो होय. ‘वीसळदेव रासो’मां तो राजस्थानी उच्चारने अनुलक्षीने सर्वत्र ‘ळ’ ज छे, ‘ल’ नहीं. ‘ल’-’ळ’ना भेदे शब्दोने अलग राखीए तो वस्तुतः एक ज छे ते शब्द वे ठेकाणे नोंधाय. एने कारणे एक ज शब्दना संदर्भो पण बे ठेकाणे वहेंचाई जाय अने शब्द तेमज शब्दार्थने समग्र चित्र ऊपसववामां अंतराय ऊभो थाय. आथी, आ संकलित कोशमां ‘ळ’ने ‘ल’नी साथे ज मूक्यो छे. आथी नीचेना जेवो शब्दक्रम नजरे पडशे. अतलिबळ, अतलीबल, अतुलीबल अमल, अमळ आगलिथु आगळो आगल्यो आलति, आलती आळपंपाळ आलरां मध्यकाळनी गुजराती कृतिओनी हस्तप्रतो जोडणीनी एकरूपता दर्शावती नथी. केटलीक वार अल्पशिक्षित, अणघड लहियाओने हाथे लखायेली हस्तप्रतो जोडणीनी अराजकता प्रगट करे छे. मध्यकालीन कृतिओना संपादको पण जोडणीनी एकरूपता भाग्ये ज ऊभी करे छे. सामान्य रीते आपणे त्यां हस्तप्रत मुजब ज जोडणी राखवानुं स्वीकारायुं छे. एमां फेरफार करवा जतां अनेक कोयडाओनो सामनो करवानो आवे. आथी एवुं बने छे के एक ग्रंथमां जे शब्द ह्रस्व ‘इ’ के ‘उ’वाळो होय ते बीजा ग्रंथमां दीर्घ ‘ई’ के ‘ऊ’वाळो होय; एक ग्रंथमां सानुस्वार शब्द होय ते बीजामां निरनुस्वार होय; एक ग्रंथमांनो ‘श’वाळो शब्द बीजा ग्रंथमां ‘स’वाळो होय, वगेरे. आवा शब्दो वेरविखेर ज रहे तो एमना विशेनी माहिती पण वेरविखेर रहे, जे कोई वार शब्दार्थनी प्रमाणभूतता प्रगट करवामां बाधक बने. आवा शब्दोने कोई पण रीते सांकळी शकाय ए जरूरी हतुं. एक रस्तो जेम ‘ल’ ‘ळ’नो भेद अवगण्यो हतो तेम ‘इ’-’ई’ वगेरेनो भेद अवगणी एमने एक ज वर्णक्रममां मूकवानो हतो. परंतु आ कोशमां आवुं वारेवारे करवानुं थाय तो एथी एनो उपयोग करनारना मनमां गूंच ऊभी थाय अने एमनी अगवडमां खास्सो वधारो थाय. एथी जे शब्दो आवा जोडणीभेदथी आव्या होय तेमने एक स्थाने भेगा करी, बीजे स्थाने प्रतिनिर्देश करवो एवी पद्धति स्वीकारी. जेम के, आलिंघन, आलीघन, आलींघन आलीघन जुओ आलिंघन आलींघन जुओ आलिंघन आम भेगा करवानुं सळंगसूत्र रूपे थयुं नथी ने बन्ने ठेकाणे प्रतिनिर्देश करी बे शब्दोने सांकळवानुं पण कर्युं छे. ‘श’-’स’ना भेद परत्वे तो एम ज कर्युं छे. आ बेमांथी एकेय प्रक्रिया न थई होय एवा शब्दो पण रही गया हशे. परंतु विरलपणे मळता के अर्थदृष्टिए ध्यान खेंचता शब्दो ज्यारे उच्चारणभेदथी आव्या होय त्यारे एमने कोई ने कोई रीते सांकळी लेवानी काळजी राखी छे. पूर्वे अनुनासिक व्यंजनवाळो जोडाक्षर गुजरातीमां अनुस्वारथी दर्शाववानी व्यापक रूढि छे – ‘अङ्क’ने स्थाने ‘अंक’, ‘अन्त’ने स्थाने ‘अंत’. मध्यकाळमां पण व्यापक रीते सानुस्वार रूप ज मळ्युं छे. तेथी बन्ने रूपो मळ्यां छे त्यां एक ठेकाणे एकठां करी बीजा रूपने एने स्थाने मूकी प्रतिनिर्देश कर्यो छे. जेम के, अन्तरि जुओ अंतरि अंतरि, अन्तरि ज्यां एकलुं अनुनासिक व्यंजनवाकुं रूप मळ्युं छे त्यां पण अनुस्वारवाळा रूपमां एने दर्शावी प्रतिनिर्देश करवानुं वलण राख्युं छे, जेथी अनुस्वारवाळा रूपे तो आवा शब्दो बधा मळे ज. जेम के, चन्द्रोदय चंद्रोदय जुओ चन्द्रोदय आम छतां, जे शब्दो एना अनुनासिक व्यंजनवाळा रूपमां सहेलाईथी समजी शकाय तेवा होय ने एनुं सानुस्वार रूप अन्यत्रथी मळतुं ज होय त्यां वे रूपोने जोडवानो के प्रतिनिर्देश करवानो हंमेशां आग्रह राख्यो नथी. आ संकलित कोशमां समावायेला शब्दकोशो जे कृतिओने आवरे छे ते बारमाथी अढारमा सैका सुधीमां रचायेली छे. आटला लांबा समयगाळामां भाषास्वरूप खास्सुं परिवर्तन पाम्युं होय अने ए परिवर्तनने झीलता शब्दो आ कोशमां दाखल थया होय. एटले के एक ज शब्द भिन्नभिन्न स्वरूपे प्राप्त थयो होय. जेम के, अउखध, उखध, ओखध; अउलवइ, उलवइ, ओलवइ; खइडां, खेडुं; कइलि, कयलि, केलि; किण, केण; उपन्नउं, उपन्युं; उब्भइ, ऊभइ वगेरे. ‘ह’, स्वार्थिक ‘ल’, ‘इ’, ‘उ’ना प्रक्षेपो के लोपथी शब्दस्वरूप बदलायुं होय, के बीजां केटलांक ध्वनिपरिवर्तनो पण थयां होय. जेम के, उशंकल, ओशंकल, ओशिंकळ; ऊलखउ, ऊलिखउ; उमाहउ, उमाहलउ; कउतिग, कुतम, कुतिक, कुहुतग, कौतग, कौतिक, कौतुक; कियारइ, किवारइ, किहारि, किहारे, किहिवारि वगेरे. आवा शब्दो अहीं जुदीजुदी रीते रजू थयेला देखाशे. केटलीक वार आवा शब्दोने एक स्थाने एकठा करी लेवामां आव्या छे ने पछी दरेक शब्दने एने स्थाने पण मूक्यो छे नेः प्रतिनिर्देश कर्यो छे. केटलीक वार आवा शब्दोने अलग ज राखी प्रतिनिर्देश कर्यो छे. तो केटलीक वार शब्दोने अलग राख्या छे ने प्रतिनिर्देश पण कर्यो नथी. खास करीने जे शब्दस्वरूप अने अर्थ परत्वे कशी भ्रान्तिने अवकाश न होय ते परत्वे प्रतिनिर्देश करवानुं अनिवार्य लेख्युं नथी. अने ज्यां शब्दस्वरूपोनुं मळतापणुं जलदी ख्यालमां आवे एवुं न होय के ज्यां अर्थनी लाक्षणिक छायाओ विकसी होय के लीधेला अर्थने घणा आधारोथी पुष्ट करवानो होय त्यां ए शब्दस्वरूपोने भेगा करवानुं अथवा जुदा राखी प्रतिनिर्देश करवानुं आवश्यक लेख्युं छे. अहीं ए नोंधवुं जोईए के केटलीक वार आवां शब्दस्वरूपो मूल ग्रंथना संपादके ज भेगां करेलां होय छे.

आधारग्रंथो

आ शब्दकोशमां दरेक मूळ शब्दो पछी तरत ए ज्यांथी प्राप्त थयो छे ते सघळा आधारग्रंथोनो निर्देश त्रांसां (इटालिक) बीबांथी करवामां आव्यो छे. ए माटे आधारग्रंथोना नियत करेला संक्षेपाक्षरो वापरवामां आव्या छे (जे संक्षेपाक्षरी पाछळ मूकेली आधारग्रंथोनी सूचि साथे जोडवामां आव्या छे). केटलीक वार एवुं बन्युं छे के मूळ आधारग्रंथना शब्दकोशमां शब्दनो जे अर्थ आपवामां आव्यो होय ते पछी शुद्धिपत्रकमां सुधारवामां आव्यो होय. आ संकलित कोशमां ए शुद्धिपत्रकनो अर्थ आमेज करवामां आव्यो छे अने तेथी आधारग्रंथना संक्षेपाक्षरने ‘शु’ जोडीने दर्शाववामां आवेल छे. जेम के, आरारा-शु. केटलीक वार मूळ आधारग्रंथमां शब्दकोश उपरांत टिप्पण के अनुवाद पण होय छे. शब्दकोशमां अर्थ आपवामां न आव्यो होय ते टिप्पण के अनुवादमांथी मळे अथवा शब्दकोशना अर्थ करतां टिप्पण के अनुवादमां कंईक जुदो अर्थ होय अने ए वधारे बंधबेसतो होय एवुं पण बन्युं छे. आ स्थितिमां टिप्पण के अनुवादनो आधार लेवानुं थयुं छे अने ए ‘टि’ के ‘अनु’ जोडीने दर्शाव्युं छे. जेम के, गुर्जरा-टि., हरिवि-अनु. आधारग्रंथना निर्देश पूर्वे निशानी आवे छे ते एम सूचवे छे के ए आधारग्रंथमां नोंधायेलो अर्थ यथायोग्य नहीं होई अहीं छोडी देवामां आव्यो छे. जेम के, अणगाल *अभिऊ. [अकाल, खराब समय] चोरस कौंसमांना अर्थो संकलित कोशना संपादके आपेला अर्थ छे. अचव्युं अखाका. अखाछ. अखेगी. नरका. न कहेलु, अवर्णनीय आ दाखलामां नरका. नो अर्थ छोडवामां आव्यो छे पण बाकीना त्रण ग्रंथोमां तो शब्दनो अहीं नोंघेलो साचो अर्थ ज मळे छे एम समजवानुं छे.

  • अजमाल अखाका. अखाछ. चित्तसं. ?, [*उजमाळ, *उज्ज्वल, *प्रकाशमान, प्रकाशित]

आ दाखलामां अखाका. अने अखाछ. ना अर्थो छोडवामां आव्या छे, ज्यारे चित्तसं.मां अर्थने स्थाने ‘?’ छे एम समजवानुं छे. चोरस कौंसमां संकलित कोशना संपादके आपेला अर्थो पण केवळ तर्करूप ने तेथी संदेहास्पद छे एम फूदडीनी निशानी बतावे छे. आधारग्रंथमां शब्द जे स्थाने होवानुं निर्देशायुं होय त्यां ए घणी वार मळ्यो नथी. आनुं कारण, अलबत्त, पृष्ठ के कडी-पंक्तिना अंकोमां थयेली छापभूल होय छे. आ कोशना संपादके साचो स्थाननिर्देश शोधवा प्रयत्न कर्यो छे अने घणी वार मळी पण गयो छे. तो स्थाननिर्देश घणा प्रयत्नो पछी पण न मळ्यो होय एवुंये बन्युं छे. केटलीक वार आधारग्रंथना संपादकथी स्थाननिर्देश करवानुं चुकाई गयुं होय छे. स्थाननिर्देश न जड्यो होय त्यां शब्दार्थनी चकासणी न थई शकी होय ए स्वाभाविक छे. आ स्थितिने दर्शाववा आधारग्रंथना संक्षेपाक्षर पूर्वे ० मींडानी निशानी करेल छे. जेम के, किलिट्‌ठु ० ऐतिका. क्लिष्ट अहीं एम समजवानुं छे के ऐतिका.मां आ शब्दनो स्थाननिर्देश नथी अथवा खोटो छे ने साचो स्थाननर्देश मेळवी शकायो नथी. अर्थ, अलबत्त, स्वीकार्य ज लाग्यो छे. डुडी कामा (त्रि). ०कामा (शा). दांडी, ढंढेरो अहीं एम समजवानुं छे के आपेलो अर्थ तो कामा (शा). मांथी मळ्यो छे, परंतु एमां स्थाननिर्देश नथी अथवा साचो नथी. ए ध्यानमां राखवानुं छे के आ संकलित कोशना संपादके घणे स्थाने साचो स्थाननिर्देश शोधी लीधो छे पण ए कई आ कोशमां आपी न शकाय. एटले मूळ आधारग्रंथ सुधी जनारने अहीं निशानी न होय तेवा ग्रंथमां पण निर्दिष्ट स्थाने शब्द न जडे एवुं बनशे. ते उपरांत जे शब्दनो अर्थ चकासवानी जरूर पडी होय तेनुं स्थान ज आ संकलित कोशना संपादके शोध्युं होय. अन्य शब्दो परत्वे खोटा स्थाननिर्देशो होय तोपण अहीं निशानी न होय. आ संकलित कोशमां अमुक प्रकारना उच्चारभेदोथी आवेला शब्दो केटलीक वार साथे लई लीधा छे ने बधा आधारग्रंथोने एकसाथे मूकी दीधा छे. त्यां कया उच्चारभेदवाळो शब्द कया आधारग्रंथमांथी छे एनी स्पष्टता नथी थती. तेथी मूळ ग्रंथ सुधी जनारने ए बधा विकल्पोनो प्रयत्न करी जोवानो रहेशे. जेम के, अधकेरु, अधिकेरु उपबा. प्रबोप्र. षडावा. आ दाखलामां निर्दिष्ट ग्रंथोमांथी कोईमां अधकेरु ने कोईमां अधिकेरु हशे, कोईमां बन्ने पण होई शके. ए हकीकतने लक्षमां राखीने मूळ ग्रंथ सुधी जनारे एमां शब्द शोधवानो रहेशे. केटलीक वार उच्चारभेदोने लुप्त करी शब्दनुं कोई सामान्य रूप स्वीकार्यु छे त्यां मूळ ग्रंथमां शब्द शोधवानुं थोडुं वधारे मुश्केल बनवानुं ए वात आगळ करी छे. एनो दाखलो लईए तो आ संकलित कोशमां पडखइ उक्तिर. कादं (शा). *गुर्जरा. जिनरा. नलरा. नलाख्या. प्रेमाका. विराप. शृंगामं. राह जुए, थोभे; *अखाका. [थोभे, विचारे] आम मळे छे, तेमां निर्दिष्ट आधारग्रंथोमां वस्तुतः पडख – पडखइ, पडखतउ, पडखि, पडखी, पडखीने, पडखे एम जुदाजुदा शब्दो छे. (पडिखइ, अलबत्त, अलग राखेल छे.) मूळ आधारग्रंथमां शब्द शोधनारे आ स्थिति लक्षमां राखवानी रहेशे. ‘ख’वाळो शब्द मूळ आधारग्रंथमां ‘ष’मां होय एवंु पण बनवानुं ते वात पण आपणे आगळ करी गया छीए. उक्तिर. उपबा. देवरा. वीसरा. ए ग्रंथोमां ‘ख’वाळा शब्द ‘ष’मां मुकायेला छे. उपरांत, जुदाजुदा ग्रंथनी शब्दक्रमनी थोडी जुदीजुदी पद्धति जोवा मळी छे. जेम के, प्रबोप्र.मां ‘क्ष’ वर्णमाळाने छेडे छे, ‘क’ना जोडाक्षरना स्थाने नहीं. ऐतिरामां अनुस्वारवाळा शब्दो अनुस्वार वगरना शब्दो पूर्वे मुकाया छे, जेम के ‘आ’ पूर्वे ‘आं’. (जोके ‘अं’मां आ नियम जळवायो नथी.) षडाबामां अनुस्वारवाळा शब्दो जे-ते वर्णना सर्व स्वरांत रूपो पूरा थया पछी आवे छे. जेम के, ‘का’, ‘कि’, ‘कु’ वगेरे पछी ‘कां’ ‘किं’ ‘कुं’ वगेरे. मूळ आधारग्रंथोनी वर्णक्रमनी आवी भिन्नभिन्न रीतने कारणे पण एमां शब्द शोधवामां थोडी महेनत पडवानी. छेल्ले, मूळ आधारग्रंथोमां अवारनवार सरतचूकथी वर्णक्रमभंग पण थयो छे, कोई वार तो मोटो. ए स्थिति पण आ संकलित कोशनो शब्द आधारग्रंथोमां शोधवामां आडे आववानी. पण आ संकलित कोशनो उपयोग करनारे एटली खातरी राखवानी छे के अहीं नोंधायेलो शब्द आधारग्रंथमां उच्चारभेदथी, क्रमभेदथी के क्रमभंगथी पण जरूर मळवानो. तेथी ए माटे ए जरा आमतेम खांखांखोळां करे ए जरूरी छे. आधारग्रंथोनी केटलीक खासियतो आ पछी ए ग्रंथोनो संक्षिप्त परिचय आप्यो छे एमांथी जाणवा मळी शकशे.

शब्दार्थ

आधारग्रंथोना निर्देश पछी शब्दार्थ सादां अने सीधां बीबांमां आपेल छे. केटलाक जेम के उपबा., गुर्जरा., वसंवि (ब्रा)., वीसरा. जेम के ऐतिका. तथा जिनरामां; तथा आधारग्रंथोमां शब्दार्थ अंग्रेजीमां छे अने षडाबा. मां; केटलाकमां हिंदीमां छे कोईकमां संस्कृतमां- जेम के उक्तिर. अने प्राचीसं.मां. अहीं आ शब्दार्थोनो गुजरातीमां अनुवाद करी लीधो छे, सिवाय के हिंदी के संस्कृत शब्द गुजरातीमां पण वपरातो होय. आ एक संकलित कोश होई एनो मुख्य आशय तो शब्दो तेमज शब्दार्थो बन्ने मूळ आधारग्रंथोमां होय ते ज आपवानो होय. परंतु मूळ आधारग्रंथमां जेम खोटा पाठवाचनने कारणे के भ्रष्ट पाठने कारणे खोटा शब्द आवी गया छे एम एने लीधे के संपादकनी समजफेरने लीधे खोटा शब्दार्थ पण आवी गया छे. आ कोशने मात्र संकलित कोश नहीं पण संशोधित कोश बनाववानो आशय रह्यो होवाथी जेम पाठसुधारणा करवानी थई तेम शब्दार्थसुधारणा पण करवानी थई छे. पाठसुधारणा करतां मूळ ग्रंथनो शब्द बदलायो, छतां मूळ ग्रंथनो शब्द राखीने ज सुधारेलो शब्द आप्यो, केम के मूळ ग्रंथमां शब्द जेम होय तेम राखवो अनिवार्य हतो. ए द्वारा ज मूळ ग्रंथना प्रयोग सुधी पहोंची शकाय. पण शब्दार्थ बदलातो होय त्यां मूळ शब्दार्थ साचववो अनिवार्य न हतो केम के एथी मूळ ग्रंथ सुधी पहोंचवामां कोई बाधा ऊभी थती नहोती. ने मूळ शब्दार्थ शुं हतो ए जाणवा इच्छनार मूळ ग्रंथ सुधी पहोंचीने ए सहेलाईथी मेळवी शके तेम हतुं. बीजी बाजुथी खोटा शब्दार्थोथी आ कोशने भरी देवाथी एनो उपयोग करनार मोटा भागना वर्ग उपर निरर्थक बोजो पडे ने एने निरर्थक गूंचवावानुं थाय एवुं बनतुं हतुं. वळी, शब्दार्थ साचो होवा विशे शंका जाय पण ए खोटो होवानुं खात्रीपूर्वक कही न शकाय अथवा तो ए अपर्याप्त होय अने एनी पूर्ति ज करवानी जरूर होय एवुं पण केटलाक दाखलाओमां देखातुं हतुं. आम शब्दार्थनी कंईक संकुल परिस्थिति सामे आवी अने शब्दार्थने केम रजू करवा ते जरा कोयडारूप बन्युं. उपरांत, मूळ ग्रंथना शब्दार्थ छोडवाना थाय के ए शंकास्पद लागे के एमां पूर्ति करवानी थाय त्यारे कोशना संपादक पोताना अर्थ आपी शके के न आपी शके, के खातरीपूर्वक न आपी शके केवळ तर्क रूपे ज आपी शके, आम विविध स्थितिओ संभवती हती. आ बधी स्थितिओमां शुं करवुं अने शब्दार्थने केम रजू करवा ए विशे चोक्कस नीतिनियम नक्की करवा जरूरी हता. केटलीक मथामणने अंते शब्दार्थ रजू करवानी नीचे प्रमाणेनी पद्धति नीपजी आवी : (१) मूळ ग्रंथमां स्पष्ट रीते खोटो शब्दार्थ होय ते आ शब्दकोशमां न ज लेवो. आ कोशना संपादक पोताना तरफथी अर्थ आपी शके तेम होय त्यां ए [ ] चोरस कौंसमां मूकवो, एणे आपेलो अर्थ खातरीपूर्वकनो न होय, तर्करूप होय त्यां एनी आगळ फूदडी करीने ए स्थिति दर्शाववी अने ए कोई प्रकारनो अर्थ आपी शके तेम न होय त्यां प्रश्नार्थ ज मूकवो. कोई एक ग्रंथमांधी एक शब्दनो खोटो अर्थ छोडवानो थाय अने बीजा ग्रंथोमांथी एनो साचो अर्थ मळी रहेतो होय त्यां, देखीती रीते ज, आ कोशना संपादके कई करवानुं न रहे. एणे जे ग्रंथनो अर्थ छोड्यो होय तेना संक्षेपाक्षरनी पूर्वे फूदडी मूकीने परिस्थितिनो निर्देश मात्र करवानो रहे. थोडा दाखला जोईए : पड (पड पितराई) प्रेमाका. [पितराईना पितराई, वधु एक पेढी दूरना पितराई] पड-पितराई *नरका. [दूरना पितराई] प्रेमाकामां ‘पड’ शब्द छे ने एनो अर्थ आप्यो छे ‘रणपट, युद्धनुं मेदान’, कृतिमां शब्दनो प्रयोग आम मळे छे मेल मेल रे पड, पितराई ! दुर्योधनपुत्र लक्ष्मण अभिमन्युना सकंजामां आवतां ए आंखमां आंसु साथे आ उक्ति बोले छे. मूळ ग्रंथना संपादके आपेलो अर्थ पहेली दृष्टिए बेसतो लागे, पण जरा विचार करतां आपणने शंका थाय छे के लक्ष्मण अभिमन्युने युद्धमेदान छोडवानुं कहे के पोताने छोडवानुं कहे? आज कृतिमां अन्यत्र थयेलो ‘पड पितराई’ प्रयोग पण आपणी नजर सामे आवे छे: मस्तक छेदवा आवतो दीठो ज्यारे पड-पितराई पड्यां पड्यां अभिमन्युने क्रोध आव्यो भराई. दुःशासनपुत्र काळकेतु अभिमन्यु सामे आवे छे तेनो अहीं उल्लेख छे. देखीती रीते अहीं काळकेतुने ज ‘पड-पितराई’ कह्यो छे. हिंदीमां प्रपौत्र माटे परपोता, पडपोता एवा शब्दो छे ते जोतां ‘पडपितराई’ मां ‘पड’ ‘प्र’मांथी आवेलो छे एनी शंका रहेती नथी. प्रपौत्र, परपोता के पडपोता एटले पौत्रनो पुत्र, तो ‘पडपितराई’ एटले पितराईनो पितराई, वधु एक पेढी दूरनो पितराई. अर्जुन ने दुर्योधन के दुःशासन ए पितराई, तेथी अभिमन्यु अने लक्ष्मण के काळकेतु ए पडपितराई. तेथी ‘मेलमेल रे, पड-पितराई’ एम पाठ सुधारी लक्ष्मण पोताना पडपितराई अभिमन्युने पोताने छोडी देवा वीनवे छे एम अर्थ लेवानो थाय. परिणामे मूळ ग्रंथनो अर्थ छोडी आ कोशना संपादकने पोतानो अर्थ मूकवानो थयो छे. मूळ ग्रंथना संक्षेपाक्षर पूर्वे *फूदडी करीने अने कोशना संपादकनो अर्थ चोरस कौंसमां मूकीने आ दर्शाववामां आव्युं छे. नरका. मां ‘पडपितराई’नो ‘पितराईओनो समुदाय’ एवो अर्थ आपवामां आव्यो छे, पण कृतिमांनी पंक्ति आ प्रमाणे छे पड-पितराई भोजाई वहेवाईनां शोधी शोधी दीघां वस्त्र पोती. कुंवरबाईना मामेराप्रसंगे थती पहेरामणीनुं आ वर्णन छे. भगवान पहेरामणी करवा बेठा एटले कुंवरबाईनां सासरियांने केटलो लोभ लाग्यो ते दर्शावती आ पंक्ति छे. एटले एमां ‘पितराईओनो समुदाय’ नहीं, ‘दूरना पितराई’ एवो अर्थ ज घटित गणाय, अने उपर जोयुं तेम ए अर्थने ज भाषादृष्टिए टेको मळे तेम छे. ‘समुदाय’ नो अर्थ आपनार आ शब्दमां कशुं नथी. एटले ए अर्थ छोडवो ज पडे. अहीं पण मूळ ग्रंथना संक्षेपाक्षर पूर्वे *फूदडी करी अने कोशना संपादकनो अर्थ [ ] चौरस कौंसमां मूकीने आ स्थितिनो निर्देश कर्यो छे. पडोचा *उषाह. [*अपेक्षा] [*प्रा. पड्डुच्चा, सं. प्रतीत्य] उषाह.मां आ शब्दनो अर्थ ‘विलाप’ आप्यो छे. करी पडोचा कुंवरी रडइ ए पंक्तिमां ए अर्थ बेसी जाय छे माटे अनुमानथी ए आपवामां आव्यो जणाय छे पण आ शब्दनो ए अर्थ लेवा माटे कशो आधार नथी. ‘विलाप करीने रडे छे’ एम आमां पुनरुक्ति पण थाय छे. तेथी संकलित कोशना संपादके प्राकृत कोशना शब्दने आधारे ‘अपेक्षा’ एवा अर्थनो तर्क कर्यो छे. स्वप्नमांथी जागेली अने अनिरुद्धनो संग गुमाव्यो छे एवी उषानी आ उक्ति होई “अनिरुद्धनी अपेक्षा करीने रडे छे” एम कदाच अर्थ होई शके. आ अर्थ खातरीपूर्वकनो नहीं, पण एक अटकळ रूपे होई एना पूर्वे *फूदडी मूकी छे. परगडउ आरारा. *ऐतिका. ऐतिरा. प्राचीफा. प्रकट, प्रसिद्ध अहीं एम समजवानुं छे के ऐतिका.मां आपेलो अर्थ छोडवानो थयो छे अने साचो अर्थ अन्य निर्दिष्ट ग्रंथोमांथी मळ्यो छे ते ज छे. (२), मूळ ग्रंथनो अर्थ खातरीपूर्वक साचो के खोटो कही शकाय तेवुं न होय एटले के शंकास्पद लागतो होय त्यां ए अर्थ आपी एनी पूर्वे *फूदडी करवी. संकलित कोशना संपादक अर्थ उमेरी शके त्यां उमेरे खातरीपूर्वक के अटकळे. जेम के, परजियो नरका. परजियो सोनी, [*कोई अलंकार] अहीं नरका.नो ‘परजियो सोनी’ ए अर्थ शंकास्पद लाग्यो छे, ते साथे संकलित कोशना संपादके आपेलो ‘कोई अलंकार’ ए अर्थ पण अटकळरूप छे एम समजवानुं छे. *पराभव गुर्जरा. अपमान, [तिरस्कार] (सं.); लावल. *पराजय, [तिरस्कार, अनादर] अहीं लावल.नो ‘पराजय’ अर्थ शंकास्पद छे, पण ‘तिरस्कार, अनादर’ ए अर्थ संदर्भमां बराबर बेसे छे एम समजवानुं छे.

  • परालें [पडाळे] नरप. *राते, [परसाळे]

अहीं मूळ ग्रंथनो ‘परालें’ पाठ अने तेनो ‘राते’ ए अर्थ बन्ने शंकास्पद छे तेमज ‘पडाळे’ पाठ अने एनो ‘परसाळे’ अर्थ लेतां संदर्भमां बराबर बेसे छे एम समजवानुं छे. (३) मूळ ग्रंथमां ज आपेला अर्थ सामे प्रश्नार्थ मूकी संशय व्यक्त कर्यो होय त्यारे जो अर्थ साधार ठरतो होय तो प्रश्नार्थ रद करवो; ए अर्थ साव खोटो ज साबित थतो होय तो छोडी देवो; अन्यथा एम ने एम राखी संकलित कोशना संपादकथी खातरीपूर्वकनो के अटकळे अर्थ आपी शकातो होय तो आपवो. जेम के, परीकरी प्रेमप. वींटाळी ? अहीं मूळ ग्रंथना संपादके ज पोते आपेला अर्थ परत्वे संशय व्यक्त कर्यो छे ने संकलित कोशना संपादकने एमां कंई सुधारवा जेवुं लाग्युं नथी एम समजवानुं छे. परीभव कामा (त्रि). हार, अपमान ?, [कष्ट, पीडा] अहीं मूळ ग्रंथना संपादके संशयपूर्वक आपेला अर्थ खोटा छे एम खातरीपूर्वक कही शकातुं नथी, पण ‘कष्ट, पीडा’ ए अर्थ योग्य रीते बेसी जाय छे एम समजवानुं रहे छे. पुंछ सिंहा (शा). झडपी ?, [*पहोंच, *गति] अहीं मूळ ग्रंथनो अर्थ तो शंकास्पद रह्यो ज छे ते साथे संकलित कोशना संपादके आपेला अर्थ पण अटकळपूर्वकना ज छे एम समजवानुं छे. (४) मूळ ग्रंथना संपादकने शब्दार्थ बेठो न होय तेथी एणे कोई शब्दार्थ आप्यो ज न होय के केवळ प्रश्नार्थ मूकी चलाव्युं होय एम पण जोवा मळे छे. मूळ ग्रंथमां शब्दार्थ न होय त्यां ‘–’ गुरुरेखा मूकी ए स्थिति दर्शाववी अने प्रश्नार्थ होय त्यां एम ने एम राखवो तथा संकलित कोशना संपादकथी अर्थ आपी शकाय तो आपवो. (जो के आरंभमां ‘–’ के ‘?’ मूकवाने बदले मूळ ग्रंथनो अर्थ छोड्यानी निशानी करी हती जे पछी सुधारी लीधुं छे, पण क्यांक सुधारवानुं रही गयुं पण हशे.) दाखला तरीके, अरंण (अरंण मूके) मदमो., [*अरण्यमां मूके, *दूर राखे, *छोडे] अहीं मूळ ग्रंथना संपादके अर्थ आप्यो नथी अने संकलित कोशना संपादके अर्थनी अटकळ करी छे एम समजवानुं छे. पांडर प्राचीसं. ?, [*फिक्कु] अहीं मूळ ग्रंथमां शब्दार्थने स्थाने केवळ प्रश्नचिह्न छे. संकलित कोशना संपादकने ‘फिक्कुं’ ए अर्थनी शक्यता जणाई छे एम समजवानुं छे. पिहिति आरारा. ?, [रांधेली दाळ, लचको] अहीं पण मूळ ग्रंथना संपादके कोई शब्दार्थ न आपतां प्रश्नचिह्न मूक्युं छे, पण संकलित कोशना संपादकने ‘रांघेली दाळ, लचको’ ए निश्चित अर्थ जणायो छे एम समजवानुं छे. उक्तिर.ना शब्दार्थ आ संकलित कोशमां रजू करवामां जरा जुदी रीत अपनाववानी थई छे ए तरफ खास ध्यान दोरवुं जोईए. उक्तिर.मां संस्कृत पर्यायो आपवामां आव्या छे, एनो अहीं गुजराती अनुवाद करी लेवानुं राख्युं छे, पण एमां मूंझवणभरी परिस्थितिओ सामे आवी छे. केटलाक संस्कृत शब्द एकथी वधारे अर्थ धरावता होय, केटलाक शब्द संस्कृत शब्दकोशोमां मळे नहीं अने प्राकृत के देश्य शब्दने संस्कृत रूप अपायुं होवानो संभव लागे, केटलीक वार मूळ शब्दनुं ज कृत्रिम संस्कृतीकरण करी नाखवामां आव्युं होय. आथी उक्तिर.ने कयो अर्थ अभिप्रेत हशे ते नक्की करवानुं मुश्केल बनी जाय. उक्तिर.मां जूज अपवादो बाद करतां शब्द वाक्यमां वपरायेलो नथी. तेथी ए चावी तो अहीं आपणा हाथमां नथी. उक्तिर.ना जे शब्दो अन्य ग्रंथोमां पण वपरायेला मळे छे त्यां एना अर्थ पण आपोआप मळी जाय छे. ते उपरांत, उक्तिर.ना घणा शब्दो अमुकअमुक जूथमां नोंधायेला छे, जेम के खाद्यपदार्थने लगता शब्दो, जीवजंतुओने लगता शब्दो, घरवखरीने लगता शब्दो, विविध प्रकारनी स्थितिओने लगता शब्दो वगेरे. आमांथी केटलीक वार सूचन मळे छे ने अर्थनिर्णय थई शके छे. पण बधी वखते एम थई शकतुं नथी. अने जूथमां न गोठवाता होय, छूटा रही जता होय एवा शब्दो पण घणा होय छे ज. आधी उक्तिर.ना शब्दार्थ रजू करवामां आवी पद्धति अपनाववी पडी छे. जेम के, (१) ज्यां अपायेलो संस्कृत शब्द परिचित ज होय त्यां ए ने एम ज राखी देवो. अउध उक्तिर. अयोध्या (२) ज्यां संस्कृत शब्दनो एक अर्थ निश्चित थई शकतो होय त्यां ए मूकवो अने गुजराती शब्दनी व्युत्पत्तिनी के एवी कोई दृष्टिए आवश्यक होय तो संस्कृत शब्द कौंसमां बताववो. जेम के, अउधारिवुं उक्तिर. अवधारवुं, ध्यानमां लेवुं अउलवइ उक्तिर. ओळवे, कपटथी पडावी ले (सं. अपलपति) ३. ज्यां एक अर्थनी अटकळ ज थई शकती होय के एकथी वधु अर्थनी शक्यता देखाती होय त्यां एवा अर्थो संपादकना [ ] चोरस कौंसमां फूदडी करीने ज दर्शाववा. जेम के, पाटलउ उक्तिर. [*पाटले बेसाडी करातो सत्कार] (सं. पाटाचारः) बकोर उक्तिर. [*शोर, *हांसी] (सं. बर्करिका) [दे. बक्कर] (४) ज्यां अपायेला पर्यायनो कोई अर्थ पकड़ी ज न शकाय त्यां संकलित कोशना संपादक तरफथी [ ] चोरस कौंसमां ‘?’ मूकवो. आ संयोगोमां पर्याय - शब्द कृत्रिम संस्कृतीकरणवाळो होय तोपण कौंसमां मूकी साचववो. जेम के, ऊसलसीधुं उक्तिर. [?] (सं. उल्लासित-संधिकम् । उत शलंध्रं) जुदाजुदा ग्रंथोमांथी एक ज शब्दना अर्थ एकथी वधु पर्यायो रूपे मळ्या होय त्यारे अहीं एने संकलित करी लीधा छे. ने जरूर लागी त्यां पर्यायोमांथी पसंदगी करी लीधी छे तेमज क्यांक शाब्दिक फेरफार करी लीधो छे. आथी निर्दिष्ट ग्रंथोमांथी कोईमां शब्दनो अहीं अपायेलो अर्थ बराबर ए ज शब्दरूपमां न मळे एम बने, पण ए त्यां तत्त्वतः तो जोई ज शकाशे. तत्त्वतः एक ज अर्थ जुदाजुदा पर्यायशब्दोथी दर्शावातो होय त्यारे ए पर्यायशब्दो अल्पविराम चिह्नथी जुदा पाडी एकसाथे लीधा छे; पण जे अर्थो के अर्थछायाओ तत्त्वतः भिन्न छे तेमनी वच्चे अर्धविरामचिह्न मूक्युं छे. आमां ज्यां जुदाजुदा आधारग्रंथो जुदाजुदा अर्थो आपता होय त्यां एमने पण जुदा पाड्या छे. जेम के, उफराटुं, उफराठुं, ऊफराटुं, ऊफरांठुं दशस्कं (१). प्रेमाका. ऊंचुं करेलु, उलाळेलं; *कादं (शा). *नलाख्या. *प्रबोप. *प्रेमाका. [पराङ्‌मुख, अवकुं, पीठ फेरवेलुं]; शृंगामं, सिंहा (शा). अवकुं, [प्रतिकूळ]; शृंगामं. आई, अवळुं, [ऊलटी दिशामां]; [अवळो भाग, पूंछडुं] अर्धविरामचिह्न‘;’थी जुदी पाडेली आ शब्दनी पांच अर्थछायाओ अहीं नोंधायेली छे एम कहेवाय. बीजी रीते जोईए तो आ शब्द प्रेमाका.मां बे अर्थछायाओमां अने शृंगामं.मां त्रण अर्थछायाओमां वपरायेलो मळ्यो छे. आ संकलित कोशमां घणा अर्थनिर्णयो करवाना थया छे एमां मुख्य परिबळ अने चावी तो शब्दोना कृतिओमां थयेला वास्तविक प्रयोगो छे. प्राप्त अर्थ, शब्द कृतिमां जे रीते वपरायो होय ए जोतां असंगत के शंकास्पद लागे एटले साचो अर्थ शोधवा तरफ वळवानुं थाय. केटलीक वार तो शब्दना घणा प्रयोगो एकठा थवाथी एमांथी ज खरा अर्थनो संकेत थयो छे. पछी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, देशी, फारसी, उर्दू, हिंदी, राजस्थानी अने गुजराती कोशोनी भरपूर मदद लीधी छे. आ कोशोए कोई वार शब्दना अर्थने आबाद उघाडी आप्यो छे. अलबत्त, शब्द त्यां उच्चारभेदथी पडेलो होय ने एना सुधी पहोंचवा मथामण करवी पडी होय एवुं बन्युं छे. डॉ. भायाणीनी शब्दचर्चाओ-शब्दकथाओ, डॉ. सांडेसरानां लेक्सिकोग्रेफिकल स्टडिझ इन जैन संस्कृत ने वर्णकसमुच्चय जेवां संपादनो, वनस्पतिकोशो, जैनधर्मविचारना ग्रंथो वगेरे प्रकारनां केटलांक इतर साधनोनो पण वारंवार उपयोग कर्यो छे अने ए उपयोग सार्थक पण थयो छे. डॉ. भायाणीना परामर्शननो लाभ वारंवार लीधो छे ते उपरांत जुदाजुदा विषयना केटलाक जाणकारोने पूछवानुं पण अवारनवार बन्युं छे. आ संपादकनी पोतानी मध्यकालीन भाषासाहित्यनी जाणकारी पण केटलेक स्थाने काम आवी होय. एक ज शब्द माटे अनेक साधनोमां खांखांखोळां करवा पड्या छे ने अंते संपादके पोतानां सूझ अने विवेक वापरवां पड्यां छे एवुं पण बन्युं छे. आ आखी प्रक्रिया अहीं बतावी न शकाय तेमज आ संकलित कोशमां मूळना अर्थो ज्यां बदल्या छे त्यां कया आधारे एम कर्युं छे ए पण कोशमां न दर्शावी शकाय. पण संपादके ज्यां अर्थ बदल्या छे त्यां आधारपूर्वक ज एम कर्युं छे एनी खातरी जरूर आपी शकाय. ज्यां नवा अर्थ विशे पूरी खातरी थई शकी नथी त्यां शंकाचिह्न मूकवानी पण काळजी राखी छे. आम छतां संपादकनी सरतचूक के गेरसमज काम नहीं करी गई होय एवुं तो साव न कही शकाय. आ कोशमां अर्थनिर्णयनी प्रक्रिया केवी रीते चाली छे एनो थोडो अंदाज आ ग्रंथमां पाछळ थोडीक शब्दार्थचर्चा मूकी छे तेना परथी आवशे. कोशमां अर्थनिर्णय माटे उपयोगमां लीधेला ग्रंथोनी यादी पण पाछळ जोडवामां आवी छे.

शब्दमूळ

शब्दार्थ आप्या पछी कौंसमां शब्दमूळ एटलेके व्युत्पत्ति आपवामां आवेल छे. गोळ कौंस ( ) मां छे ते मूळ ग्रंथमांधी प्राप्त थयेल शब्दमूळ छे, चोरस कौंसमां छे ते आ संकलित कोशना संपादके आपेल छे. आ विशे आरंभे ज स्पष्टता करवी जोईए के कौंसमां बधे चुस्त रीते व्युत्पत्ति अभिप्रेत नथी. केटलेक स्थाने मळतापणुं ज अभिप्रेत छे. एटले मध्यकालीन गुजराती शब्दने मळतो शब्द अन्यत्र प्राप्त थतो होय तो ए पण नोंध्यो छे. कौंसमां भीली, कच्छी, हिंदी, मराठी, पंजाबी, पालि वगेरे भाषाना शब्दो नोंध्या छे त्यां समान्तरता ज समजवानी छे. आम तो, डॉ. भायाणीनो अभिप्राय एवो हतो के व्युत्पत्तिना विषयमां बहु पडवा जेवुं नथी. आपणे त्यां घणी वार व्युत्पत्ति अपाय छे ते आधारभूत होती नथी, ए गमे तेम बेसाडी देवामां आवेली होय छे के अटकळे मुकायेली होय छे. छतां व्युत्पत्ति आपवी ज होय तो अत्यंत प्रमाणभूत होय तेवी ज आपवी. खोटी व्युत्पत्तिना प्रसार-प्रचारमां आपणे साधनरूप न थवुं. खरी वात छे के व्युत्पत्ति ए एक स्वतंत्र ने अलायदुं विषयक्षेत्र छे अने ए जुदी ज सज्जता ने जुदो प्रयास मागे. आ कोश मुख्यत्वे शब्दार्थकोश छे, ए ने माटे व्युत्पत्ति आपवी अनिवार्य नथी. एटले डॉ. भायाणीनी ए सलाह योग्य ज हती के व्युत्पत्ति मर्यादित रूपे ने एकदम प्रमाणभूत होय ते ज आपवी. परंतु प्राप्त व्युत्पत्तिनी प्रमाणभूतता चकासवानी आ कोशना संपादकमां पूरी योग्यता नहोती अने हानोपादाननो विवेक करवो एने माटे मुश्केल हतो. बीजी बाजुथी एम जोवा मळतुं हतुं के निर्दिष्ट व्युत्पत्तिओ के समान्तरताओथी घणी वार शब्दने वधारे सारी रीते ओळखी शकातो हतो ने एना अर्थने टेको प्राप्त थतो हतो. घणी वार शब्दना अर्थनो निर्णय करवानी प्रक्रियामां संस्कृतादि भाषाना शब्दो मळी आव्या छे. एम पण लाग्युं के शब्दमूळ अंगेनी जे कंई सामग्री प्राप्त थती होय ए एक वखत संकलित थई जाय तो एमां कई खोटुं नथी. मूळ संपादित ग्रंथो सिवायनां साधनोमांथी एवी सामग्री मळती होय तो एनेये, आ दृष्टिए, आमेज करवी जोईए. आम, आ कोशमां शब्दना स्वरूप अने प्रयोग पर प्रकाश पाडनार व्युत्पत्तिनी के एवी सामग्री आपवामां संकोच राख्यो नथी. पण साथेसाथे डॉ. भायाणीनी प्रमाणभूतता माटेनी जिकरने अवगणी पण नथी. मूळ ग्रंथोमां के अन्यत्रथी प्राप्त व्युत्पत्तिओ पोताना मर्यादित ज्ञानथी पण संपादकने निराधार जणाई त्यां ए छोडी ज दीधी छे. ज्यां संपादकथी निर्णय थई शक्यो नथी त्यां फूदडी मूकी शंका दर्शावी छे. मूळ ग्रंथमांनी अने अन्यत्रथी प्राप्त के संपादके विचारेली एम बन्ने व्युत्पत्तिओ साथे मूकवानुं पण घणी वार बन्युं छे. संस्कृतनां कल्पित रूपो पण एना संकेत साथे साचवी लीधा छे ए मान्य प्रणालिका होवाथी. उक्तिर.ना संस्कृत शब्दो तो व्युत्पत्तिनी दृष्टिए टकी शके तेम न होय त्यां पण, अर्थप्रकाशक होवाने कारणे साचवी लेवानुं बन्युं छे. ए हकीकत ध्यानमां राखवानी छे के मध्यकालीन शब्दनी व्युत्पत्ति दर्शावती वखते ए ज विभक्तिरूप के क्रियापदरूप आपवानो आग्रह राख्यो नथी. शब्दनुं मूळ कोई पण रीते सूचवाय ए ज पर्याप्त लेख्युं छे. ज्यां शब्दार्थ रूपे ज संस्कृतादि भाषानो मूळ शब्द आवी जतो होय त्यां पछी व्युत्पत्तिना विभागमां ए शब्द फरी बताववानुं राख्युं नथी, केम के आ कंई व्युत्पत्तिकोश नथी ने अहीं तो गमे ते रीते मूळ शब्द दर्शावाय ते चाली शके. थोडाक दाखलाओथी आ बधा मुद्दा समजीए : अक्खइ षष्टिप्र. कहे छे (सं. आख्याति) अहीं गोळ कौंसमानी व्युत्पत्ति मूळ ग्रंथमांथी छे एम समजवानुं छे. अज्जवि ऐतिका. आज पण [सं. अद्यापि] अहीं चोरस कौंसमांनी व्युत्पत्ति संपादके पूरी पाडेली छे एम समजवानुं छे. अउगनाइ उक्तिर. ध्यानमां न ले (सं. अपकर्णयति) [सं. अवकर्णयति] गोळ कौंसमां आपेली व्युत्पत्ति मूळ ग्रंथमांधी छे पण एने माटे पूरो आधार नथी एम फूदडी करीने दर्शाव्युं छे. चोरस कौंसमां मूकेली व्युत्पत्तिने माटे आधार छे एम समजवानुं छे. अत षडावा. *अहीं, [*आ बाबतमां] (सं.अत्र), [*कदाच, *संभवतः] [सं.उत] आ दाखलामां मूळ ग्रंथमां अतने सं. ‘अत्र’मांथी व्युत्पन्न करी अर्थ आपवामां आव्यो छे, जे शंकास्पद जणायो छे. आथी संपादके एनी सं. ‘उत’मांथी व्युत्पत्ति साधी बीजा अर्थनो तर्क कर्यो छे. अतांड प्रेमाका. खूब ऊंचेथी [*सं. उत्तान] अहीं मूळ ग्रंथमां व्युत्पत्ति आपवामां आवी नथी, ने आ कोशना संपादके पण तर्क कर्यो छे. आफरिउ गुर्जरा. विराप. आफरो चडेलंु, [उन्माद चडेलुं; प्रद्युचु. आफरो चडेलंु, फूलेलुं (सं.आ+स्फुर्) [सं.आ+स्फर्] अहीं मूळ ग्रंथमां अपायेली व्युत्पत्ति उपरांत संपादके उमेरेली व्युत्पत्ति पण शक्य छे एम समजवानुं छे. वस्तुतः संस्कृतमां ज ‘आ+स्फुर्’ परथी ‘आस्फर्’ थयेल छे. आ रीते एक करतां वधु ग्रंथोमांथी शब्द मळेलो होय त्यां व्युत्पत्ति एमांना कोई एक के वधु ग्रंथमां अपायेली समजवानी छे, एनी तरत पूर्वे निर्दिष्ट ग्रंथमांथी ज छे एम समजवानुं नथी. आखडे प्रद्युचु. ठोकर खाय; *अखाका. कादं (शा). नेमिछं. “प्रेमाका. लथडी पडे; “नरका. [लडे] (सं. आस्खलति) [सं. *आक्षुटति] अहीं मूळ ग्रंथमां अपायेली व्युत्पत्ति सामान्य रीते स्वीकृत व्युत्पत्ति छे सं. ‘आक्षुटति’ मांथी शब्द वधारे सारी रीते व्युत्पन्न थई शके तेम होवाथी संपादके ए व्युत्पत्ति उमेरी छे, पण ‘आक्षुटति’ ए संस्कृतमां प्रयोजातुं रूप नहीं पण कल्पित रूप छे एम एनी पूर्वे फूदडी करी छे ते परथी समजवानुं छे. संस्कृतमां ‘क्षुट्’ शब्द मळे छे, ‘आक्षुट्’ शब्द मळतो नथी. आमलीय तेरका. आंबळो (सं. *आमलिका, अप. आमलीय) अहीं एम अभिप्रेत छे के संस्कृतमां ‘आमलिका’ शब्द मळतो नथी, पण एवा शब्द परथी ज अपभ्रंशमां मळतो ‘आमलीय’ शब्द आवी शके. आमोडउ प्राचीसं. अंबोडो (सं. आम्रमुकुट) [दे. आमोडो] मूळ ग्रंथमां व्युत्पत्ति आपी छे ते बराबर छे, पण साथे ‘आमोडो’ शब्द देश्य शब्द तरीके पण नोंधायेलो मळे छे ए संपादकना उमेरणनुं तात्पर्य छे. अजमाण नरका. अजमो [हिं. अजवाइन] अहीं संपादके हिंदी शब्दनी समान्तरता दर्शावी छे एम समजवानुं छे एटलेके ‘सरखावो हिं. अजवाइन’ ए तात्पर्य छे. अडसीला *नेमिछं. [हठीला] [रा.अडसाला] अहीं राजस्थानीमां ‘अडसाला’ शब्द आ अर्थमां प्राप्त थाय छे एटलुं ज तात्पर्य छे. अडसीलामां पाठदोष जोई शकाय एवंु नथी तेथी बन्ने शब्दो एम ज राख्या छे. कणि आरारा. कन्या, पुत्री (रा.; सं.कनी) अहीं एम दर्शाववामां आव्युं छे के कणिनुं मूळ सं. ‘कनी’मां छे, पण राजस्थानीमां पण कणि शब्द नोंधायेलो छे. आ साथे ज ए स्पष्टता करवी जोईए के ज्यां शब्दने राजस्थानी, हिंदी वगेरे कह्यो छे त्यां ए केवळ राजस्थानी के हिंदी छे एम हंमेशां तात्पर्य नथी, भगवद्‌गोमंडल जेवो कोश पण घणी वार ए शब्द आपतो होय छे अने घणी गुजराती कृतिओमां ए प्राप्त थतो होय छे, परंतु राजस्थानी के हिंदी कोशमांथी ए शब्दने समर्थन मळे छे ए बताववानुं तात्पर्य होय छे. आराडि षडाबा. आक्रंद, चीस, बराडा (सं. आरटते) अहीं, जोई शकाय छे के, संज्ञारूपना मूळ तरीके क्रियापदरूप अपायेलुं छे. संस्कृतमां संज्ञारूप मळतुं न होवाथी क्रियापदरूप परथी ए सधायुं होवानी धारणा एनी पाछळ छे. अकयत्थ आरारा. एळे; ऐतिका. अकृतार्थ, [जेनुं जीवन सार्थक नथी एवो] अहीं अकयत्थनुं मूळ सं. ‘अकृतार्थ’ छे, जे शब्दार्थ तरीके ज आवेल छे तेथी व्युत्पत्ति-विभागमां एने दर्शावेल नथी. अणगाल *अभिऊ. [अकाल, खराब समय] [प्रा.] अणगाल सं. ‘अकाल’ मांथी आवेल छे, जे शब्दार्थमां आवी गयेल छे. पण प्राकृतमां ‘अणगाल’ मळे छे ते अहीं दर्शाववामां आव्युं छे. अशाबो नरप. असबाब, सरसामान, अलंकार अहीं अशाबोनुं मूळ अरबी/फारसी ‘असबाब’ शब्दार्थमां आवी गयेल छे. तेथी अलग दर्शावेल नथी. संपादके व्युत्पत्ति के समान्तरता दर्शावी छे एमां अन्य साधनोनी घणी मदद लेवामां आवी छे. व्युत्पत्तिनी बाबतमां, सामान्य रीते, डॉ. भायाणीए एमना ग्रंथोमां आपेली व्युत्पत्तिओ वधु साधार लेखवानुं वलण रह्युं छे. छतां संपादक पोताना आ प्रयासनी अधूरपथी सभान छे ज. एथी ज एवी विनंती करवानी छे के अभ्यासीओ अहीं अपायेली व्युत्पत्तिओने कामचलाउ रीते अपायेली लेखे अने प्रमाणभूत व्युत्पत्ति माटे मान्य लेखातां साधनोनो आश्रय ले. हवे तो डॉ. हरिवल्लभ भायाणीना गुजराती भाषानो लघु व्युत्पत्तिकोशमां घणी व्युत्पत्तिओ हाथवगी पण थई छे. अलबत्त, ए अर्वाचीन गुजराती शब्दोनो व्युत्पत्तिकोश छे, तेथी केवळ मध्यकाळमां प्रचलित शब्दोनी व्युत्पत्ति एमांधी नहीं जडे. जेवी छे तेवी आ संकलित कोशमां अपायेली व्युत्पत्तिओ थोडी पण काम आवशे तो संपादके ए माटे करेलो श्रम लेखे लागशे.

आधारग्रंथो

(शब्दसामग्री माटे उपयोगमां लीधेला संपादित ग्रंथोनो परिचय, एमना संक्षेपाक्षरोने क्रमे) अखाका. अखानी काव्यकृतिओ खंड २, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. साहित्य संशोधन प्रकाशन, अमदावाद, १९८८. आ संपादन अखाभगतनां पदो उपरांत बीजी केटलीक कृतिओने समावे छे. कोई कृति रचनावर्ष धरावती नथी, परंतु अखाभगतनो कवनकाळ सत्तरमी सदी मध्यभाग निश्चित छे. आमां आशरे १५०० शब्दोने समावतो कोश छे. एमां संस्कृत शब्दो अने रूढिप्रयोगो पण नोंधवामां आव्या छे. ‘शुद्धि अने वृद्धि’मां पण शब्दकोशने लगती शुद्धिवृद्धि छे. अखाछ. अखाना छप्पा, संपा. उमाशंकर जोशी, प्रका. वोरा, अमदावाद, त्रीजी अखाछ. आवृत्ति १९७७. आ कृतिने पण रचनावर्ष नधी, परंतु अखाभगतनो कवनकाळ सत्तरमी सदी मध्यभाग सुनिश्चित छे. आमां ४५०० जेटला शब्दोने समावती शब्दसूचि छे ते उपरांत छप्पाओनी साथे टिप्पण रूपे पण अर्थ ने समजूती आपेलां छे. टिप्पणमां अपायेला शब्दार्थोमांथी केटलाक शब्दसूचिमां आव्या न होय एवुं देखाय छे. शब्दकोशमां शब्दो परत्वे एकथी वधु स्थाननिर्देश कर्या छे. अखेगी. अखेगीता, संपा. उनाशंकर जोशी अने रमणलाल जोशी, प्रका. गुजरात युनिवर्सिटी, अमदावाद, बीजी आवृत्ति १९७८. आ कृत्तिनुं रचनावर्ष १६४९ (सं.१७०५) मळे छे. २०० उपरांत महत्त्वना शब्दोनो कोश आमां छे. आमां पण शब्दो परत्वे एकथी वधु स्थाननिर्देश कर्या छे. शब्दकोश उपरांत विस्तृत टिप्पण पण छे. अभिऊ (दहलकृत) अभिवन-ऊझणु, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. पोते, अमदावाद, १९६२. कृतिनो रचनासमय नथी, पण एनी हस्तप्रतनुं लेखनवर्ष १६२४ मळे छे. कर्ता १५०० आसपास हयात होवानुं अनुमान थयुं छे. शब्दकोशमां ४०० उपरांत शब्दो छे. शब्दोना व्याकरणी पदप्रकार दर्शावेल छे अने घणा शब्दोनी व्युत्पत्ति आपी छे.

अंगवि. (कीकु वसहीकृत) अंगद-विष्टि, संपा. हरिनारायण आचार्य. जुओ कृष्णबा.
अंबरा. (वाचक मंगलमाणिक्य विरचित) अंबड विद्याधर रास, संपा. बलवंतराय क. ठाकोर, प्रका. एन. एम. त्रिपाठी लिमिटेड, मुंबई, १९५३.

कृतिनुं रचनावर्ष १५८३ (सं. १६३९) मळे छे. कृतिनो मूळ पाठ छपाया पछी बलवंतराय ठाकोरनुं अवसान थयेलुं. एमनी आंखनी तकलीफने कारणे प्रूफवाचननी घणी भूलो रही जतां भोगीलाल सांडेसराए विस्तृत पाठशोधन आप्युं छे अने शब्दकोश पण उमेर्यो छे. एमां २५० जेटला शब्दो नोंधायेला छे. केटलाक शब्दो परत्वे एकथी वधु स्थाननिर्देश करेल छे. ‘ष’ने ‘ख’ना क्रममां मूकेल छे. जेम के ‘षासर’ (खासर). आनंस्त. ‘आनंदघन बावीसी’ पर ज्ञानविमलसूरिकृत स्तबक, संपा. कुमारपाळ देसाई, प्रका. कौशल प्रकाशन, अमदावाद, १९८०. स्तबकनुं रचनावर्ष नथी, परंतु सौथी जूनी हस्तप्रत १७१३ (सं. १७६९)नी लखायेली मळे छे जे ज्ञानविमलसूरिना जीवनकाळ (१७२६ सुधी हयात) नी छे. एटले ए वर्षे के एनी पूर्वेनां थोडां वर्षोमां स्तबक रचायो हशे एम अनुमान थई शके. आशरे ७०० शब्दोने समावतो विस्तृत शब्दकोश आमां छे. ‘नीपजइ’ ‘पदार्थनइ’ जेवा अंत्य स्थानना सामान्य उच्चारणभेदवाळा घणा शब्दो ने ‘अकस्मात भय’ जेवा चालु शब्दो नोंधाया छे, जे आ संकलित शब्दकोशमां छोडी दीघा छे. ते उपरांत, जैन, बौद्ध, न्याय वगेरे दर्शनोना घणा पारिभाषिक शब्दोनी समजूती पण एमां छे. ए शब्दो पण चालु भाषाना न होई अने दार्शनिक संदर्भ घरावता होई सामान्य रीते छोडी दीधा छे. आम छतां जैन दर्शनना केटलाक शब्दो अन्य मध्यकालीन कृतिओमां सामान्यपणे वपराता जणाया ते साचववानुं पण बन्युं छे. शब्दो परत्वे एकथी वधारे स्थानोनो निर्देश थयो छे. संपादके शब्दकोशमां मात्र स्तबक अंतर्गत शब्दो ज समाव्या छे, स्तवनोमां रहेला शब्दो लीधा नथी पण स्तबकोमां मूळ शब्द आपी एनो अर्थ नोंधवानी एक रूढि छे तेथी स्तवनना केटलाक शब्दोने स्थान मळ्युं छे. जेम के स्तबकमां गंजी जीति न सकइ एम छे त्यां ‘गंजी’ मूळ स्तवननो शब्द छे ने एनो स्तबककारे ‘जीति’ अर्थ आप्यो छे. पण स्तबकमां मूळना बधा शब्दो आव्या नथी अने तेथी केटलाक लाक्षणिक मध्यकालीन शब्दो स्तवनोमां ज रह्या छे, एमने शब्दकोशमां स्थान मळ्युं नथी. स्तबककारे पोते शब्दना अर्थ कर्या छे ने क्यारेक पर्याये कथन कर्युं छे तेथी मध्यकालीन शब्दार्थ के कर्ताने अभिप्रेत शब्दार्थ प्रमाणभूत रीते आपणा हाथमां आवे एवुं अहीं बन्युं छे. जो के संपादक एनो लाभ न लई शक्या होय एवां स्थानो पण देखाय छे. जेम के ‘वृष’नो अर्थ संपादक ‘श्रेष्ठ’ आपे छे, परंतु ‘ऋषभ’ (वृषभ) शब्द समजावतां स्तबककारे आम लखेलुं छे : “वृष कहेतां आत्मभावरूप धर्म... भ कहेतां शोभइ...” संस्कृत कोशो पण ‘वृष’ना ‘धर्म, नीति, सत्कर्म’ वगेरे अर्थो नोंधे छे. आरारा. आरामशोभा रासमाळा, संपा. जयंत कोठारी, प्रका. प्राकृत जैन विद्याविकास फंड, अमदावाद, १९८९. अहीं समाविष्ट आरामशोभा कथानकने वर्णवती छ कृतिओ १४७९थी १७०५ सुधीनां रचनावर्षो धरावे छे. शब्दकोश २००० उपरांत शब्दोने समावे छे. एकथी वधारे स्थानोनो निर्देश पण छे. शुद्धिपत्रकमां थोडाक शब्दोना अर्थ सुधारवामां आव्या छे, जेनो अहीं लाभ लेवायो छे. शब्दकोशमां क्यांक क्रमभंग छे. आरारा.(व) उपर्युक्त ग्रंथनो वनस्पतिकोश. एमां आशरे २५० शब्दो छे. उक्तिर.(साधुसुंदरगणीविरचित) उक्तिरत्नाकर,संपा.जिनविजयमुनि,प्रका.राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मंदिर, जयपुर,१९५७ कृतिनुं रचनावर्ष नथी, परंतु कर्तानो सर्जनकाळ १६२४थी १६२७ जाणवा मळे छे. ग्रंथमां आ कृति उपरांत अन्य बे अज्ञातकर्तृक औक्तिको पण छे. आ कृतिओ गुजराती भाषानां शब्दो, व्याकरणरूपो अने वाक्योने संस्कृत पर्यायो आपीने समजावे छे. छेल्ले सर्व सामग्रीने आवरी लेतो विस्तृत शब्दानुक्रम छे, जेमां ४००० उपरांत शब्दो ने शब्दसमूहो नोंधाया छे. आ केवळ शब्दानुक्रम छे, त्यां अर्थ नोंघेल नथी, पण निर्दिष्ट स्थाने अर्थ - अलबत्त संस्कृतमां - मळे छे.. सत्तरमी सदीना शब्दार्थोना एक प्रमाणभूत दस्तावेज तरीके आ ग्रंथनी सामग्रीनुं मोटुं मूल्य छे. तेथी संस्कृतना आधारे गुजराती अर्थ करीने आ ग्रंथना शब्दकोशनो लाभ लेवानुं इष्ट गण्युं छे. सत्तरमी सदीमां वपराता शब्दोमां आजे वपराता शब्दो पण होय ज. ए अहीं लेवाना न होय ए स्पष्ट छे. मध्यकाळमां ‘ख’ माटेनुं लिपिचिह्न पण ‘ष’ हतुं. आ पुस्तकना शब्दानुक्रममां ‘ख’थी आरंभाता शब्दो ‘ख’मां तेमज ‘ष’मां एम बन्ने स्थाने मुकायेला छे. ‘ष’मां ‘ष (ख) ईइ’ एम करीने शब्दो नोंध्या छे. आ संकलित शब्दकोशमां बधा शब्दो ‘ख’ना क्रममां ज लीधा छे. उपबा. अ स्टडी ऑव् ध गुजराती लेंग्विज इन ध सिक्स्टिन्थ सेन्च्युरी (वी.एस.) विथ स्पेशिअल रेफरन्स टु ध एमएस. बालावबोध टु उपदेशमाला, त्र्यंबकलाल एन. दवे, घ रॉयल एशिआटिक सोसायटी, लन्डन, १९३५. आमां नन्नसूरिविरचित बालावबोध समाविष्ट छे. ए १४८७मां रचायेलो छे. बालावबोधना लगभग १६०० शब्दोने समावतो शब्दकोश आमां छे. कृतिपाठ, शब्दकोश वगेरे सघळुं रोमन लिपिमां छे. शब्दो परत्वे लगभग अशेषपणे स्थाननिर्देश करवानो प्रयत्न देखाय छे अने दरेक स्थाने वपरायेला शब्दना व्याकरणी रूपने पण ओळखाव्युं छे. शब्दोना अर्थ अंग्रेजीमां छे, जेनो अहीं गुजराती अनुवाद करवामां आव्यो छे. शब्दोनी व्युत्पत्ति दर्शाववामां आवी छे. ‘ख’ ‘ष’ रूपे लखायेलो होवाथी एनाथी आरंभाता शब्दो (जेम के ‘खउरउ’) ‘ब’ना क्रममां ज मूकेला छे, जे आ कोशमां ‘ख’ना क्रममां लई लीधा छे. उषाह. (वीरसिंहकृत) उषाहरण, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९३८. कृतिनुं रचनावर्ष नथी पण प्राप्त प्रतनुं लेखनवर्ष १५१३ (सं.१५६९) छे ने एनो रचनाकाळ पंदरमी सदीनुं त्रीजुं चरण होवानुं अनुमान थयुं छे. शब्दकोशमां आशरे ४०० शब्दो छे. मूळ संस्कृत-प्राकृत-देश्य शब्दो तथा समांतर हिंदी, मराठी, आधुनिक गुजराती शब्दो पण नोंध्या छे. ऋषिरा (जयवंतसूरिकृत) ऋषिदत्तारास,संपा.निपुणा अ. दलाल, प्रका.लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर,अमदावाद,१९७५ कृति १५८७(सं.१६४३)मां रचायेली छे. ऐतिका. ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह, संपा. अगरचंद नाहटा, भंवरलाल नाहटा, प्रका. शंकरदान शुभैराज नाहटा, कलकत्ता, सं.१९९४. आमां बारमी सदी पूर्वार्धथी ओगणीसमी सदी पूर्वार्ध सुधीनी कृतिओ संघरायेली छे. शब्दकोशमां लगभग १३०० शब्दो छे. अत्यारे गुजरातीमां अत्यंत अपरिचित एवा ‘अढळक दान’ जेवा कोईक शब्दो पण नोंधाया छे, ते राजस्थानी प्रदेशमां अत्यारे वपराशमां नहीं होय ते कारणे हशे. आ ग्रंथमां अर्थ हिंदी भाषामां आपवामां आव्या छे, तेनो आ कोशमां सामान्य रीते अनुवाद करी लीधो छे. ऐतिरा. ऐतिहासिक राससंग्रह, भाग पहेलो, संपा. विजयधर्मसूरि, प्रका. यशोविजय ग्रंथमाळा, भावनगर, सं. १९७२. ग्रंथमां पंदरमी सदी उत्तरार्धथी सत्तरमी सदी पूर्वार्ध सुधीनी कृतिओ संगृहीत थई छे. शब्दकोशमां आशरे ३५० शब्दो छे. प्रथमाक्षरमां “अं’ कारवाळा शब्दो (‘भंति’) जुदाजुदा क्रमे मुकाया छे पण ‘आं’ कारवाळा शब्दो ‘आ’कारनी पूर्वे ज मुकाया छे. ‘ख’थी आरंभाता शब्दो ‘ष’मां छे, जे आ कोशमां ‘ख’मां लई लीधा छे. कर्पूमं. (मतिसारकृत) कर्पूरमंजरी, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९४१. कृति १५४९ (सं.१६०५) मां रचायेल छे. शब्दकोश आशरे १०० शब्दोने समावे छे. संस्कृत-प्राकृत-देश्य ने क्वचित्‌ फारसी शब्दमूळ तेमज हिंदी, मराठी, अर्वाचीन गुजराती, प्रादेशिक गुजराती वगेरे प्रकारनां समान्तर रूपो दर्शाव्यां छे. ‘ए’ ‘नि’ वगेरे प्रत्ययो लीधा छे ते आ संकलित कोशमां छोडी दीधा छे. कस्तुवा. (शामळ भट्ट कृत) कस्तुरचंदनी वारता. जुओ नंदब. कादं (ध्रु). (कविश्री भालणकृत) कादंबरी, पूर्व भाग, संपा. केशवलाल ह. ध्रुव, प्रका. पोते, अमदावाद, १९१६. कृतिनो रचनासमय मळतो नथी. पण भालणनो जीवनकाळ सोळमी सदी पूर्वार्ध आसपासनो होवानुं अनुमान धयुं छे. ‘केटलाक असाधारण शब्दो’ ए शीर्षक नीचे २०० उपरांत शब्दोना अर्थ आपवामां आव्या छे. शब्दो परत्वे काव्यपंक्तिनो तेमज टिप्पणना पृष्ठनो संदर्भ आपेल छे. आथी, क्यांक अर्थ नोंध्या नथी (‘पोतृ’ ‘प्रणीता’ जेवा खास शब्दोना) त्यां टिप्पणमांथी मेळवी शकाय छे ते उपरांत केटलाक शब्दोनी विशेष समजूती पण त्यांथी मेळवी शकाय छे. कादं (शा). (कवि भालणकृत) कादंबरी, पूर्व भाग, संपा. केशवराम का. शास्त्री, प्रका. भारत प्रकाशन, अमदावाद, बीजुं संस्करण १९६९; (कवि भालणकृत) कादंबरी, उत्तर भाग, संपा. प्रका. ए ज, प्रथम संस्करण १९६९. बंने ग्रंथोमां बन्ने भागोने आवरी लेतो समान शब्दकोश आपवामां आव्यो छे. ए शब्दकोशमां आशरे ६०० शब्दो छे. थोडा शब्दो परत्वे एकथी वधु स्थाननिर्देशो छे. व्युत्पत्तिविषयक ने व्याकरणविषयक नोंधो बधा शब्दोमां आपी छे. कामा (त्रि). (लोकवार्ताकार शिवदासकृत) कामावती, संपा. भूपेन्द्र बा. त्रिवेदी, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९७२. कृतिनुं रचनावर्ष १५१७ (सं.१५७३) मळे छे. शब्दकोशमां आशरे २०० शब्दो छे. उच्चारणभेदथी आवता शब्दो साथे ज लई लीधा छे. जेम के, ‘ओहोलास, होलास [५९० व.] उल्लास’. आथी थोडाक शब्दो एमना वर्णानुक्रमथी अलग स्थाने नोंधाया होवानी स्थिति ऊभी थाय छे. कामा (शा). कामावतीनी कथानो विकास अने कवि शिवदासकृत ‘कामावतीनी वार्ता’, प्रवीण अ. शाह, प्रका. पोते, विरमगाम, १९७६. शब्दकोशमां २०० उपरांत शब्दो छे. अहीं पण उच्चारभेदवाळा शब्दो साथे लीघा छे. थोडाक शब्दो परत्वे स्थानिर्देश आपवानो चुकाई गयो छे. कृष्णच. (अज्ञात कविकृत) कृष्णचरित्र. जुओ कृष्णबा. कृष्णबा. (कीकु वसहीकृत) कृष्ण-बालचरित तथा अन्य मध्यकालीन रचनाओ, संपा. हरिवल्लभ भायाणी, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९९२. अन्य मध्यकालीन रचनाओमां कीकु वसहीकृत अंगदविष्टि, अज्ञात कविकृत कृष्णचरित्र अने अज्ञात कविकृत रावणचरितनो समावेश छे. एकेय कृति रचनावर्ष धरावती नथी. परंतु कीकु वसही पंदरमी सदीना अंते के सोळमी सदीना आरंभे हयात होवानुं अनुमान थयुं छे अने अज्ञातकर्तृक बे कृतिओ अनुक्रमे पंदरमी सदी अंतभाग अने तेरमी शताब्दी लगभगनी होवानुं अनुमान थयुं छे. रावणचरित सिवायनी त्रणे कृतिओना अलग शब्दकोश आपवामां आव्या छे, जे अनुक्रमे १००, ५० अने १०० शब्दोने समावे छे. अंगदविष्टिना शब्दकोशने मथाळे भूलथी कृष्णविष्टि छपायुं छे. गुर्जरा. गुर्जररासावली, संपा. बी. के. ठाकोर, एम. डी. देसाई, एम. सी. मोदी, प्रका. ऑरिएन्टल इन्स्टिट्यूट, बरोडा, पुनर्मुद्रण १९८१. आ ग्रंथमां १३५४ (सं. १४१०) थी १४२९ (सं. १४८५) सुधीनी कृतिओ संघरायेली छे. २२६ पानांमां विस्तरता शब्दकोशमां ३५०० जेटला शब्दो छे. शब्दोनां विविध विभक्तिओ के काळ-अर्थनां रूपो नोंध्यां छे, एमनां प्रयोगस्थानो प्रचुरताथी निर्देश्यां छे अने दरेक शब्द परत्वे व्युत्पत्तिविषयक, व्याकरणविषयक, अर्थविषयक नोंध वीगते आधारो साथे आपी छे. केटलाक शब्दोना अर्थ टिप्पणमां सुधार्या छे, जेनो आ संकलित कोशमां उपयोग करी लीधो छे. शब्दकोशमां सर्वग्राही बनवानो हेतु होवाथी ‘द्रौपदीअ’ ‘धणियाणी’ ‘नागिणी’ ‘नाचइ’ जेवा शब्दो पण आप्या छे, जे आ संकलित कोशमां छोडी दीधा छे. ग्रंथमां अर्थो अंग्रेजीमां आपेला छे तेनुं अहीं गुजराती करी लीधुं छे. चतुचा. (विश्वनाथ जानीरचित) चतुरचालीसी, संपा. महेन्द्र अ. दवे, प्रका. क. ला. स्वाध्यायमंदिर, अमदावाद, १९८६. आ कृति रचनावर्ष धरावती नथी, पण विश्वनाथ जानी, १६५२नी अन्य रचनाओ मळे छे. शब्दसूचिमां २५० उपरांत शब्दो छे. चंद्रवा. (शामळ भट्टकृत) चंद्र-चंद्रावती वारता, संपा. हीरा रा. पाठक, प्रका. गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अमदावाद, १९६८. कृतिनुं रचनावर्ष नथी, परंतु शामळनी अन्य कृतिओ १७१८थी १७६५नां रचनावर्षो बतावे छे. शब्दकोशमां ३०० जेटला शब्दो छे. एकथी वधु स्थाननिर्देशो थया छे ने उच्चारभेदवाळा शब्दो एकसाथे लई लीधा छे. अर्थ निश्चित न धई शक्यो होय तेवां स्थानोए प्रश्नार्थ मूक्यो छे. शब्दकोशने मथाळे “पहेलो क्रम पृष्ठनो छे, बीजो कडीनो छे” एम कह्युं छे ते भूल छे. पहेलो अंक कडीनो ने बीजो चरणनो छे. चारफा. पंदरमा शतकनां चार फागुकाव्यो, संपा. कान्तिलाल ब. व्यास, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९५५. संगृहीत कृतिओ रचनावर्ष धरावती नथी, पण ए १४००थी १४७५ना आसपासना गाळामां रचायेली होवानुं नक्की थई शके छे. शब्दकोशमां १५० जेटला शब्दो छे. शब्दोना संस्कृत-प्राकृत-देश्य मूळ दर्शाव्यां छे. चित्तसं. (अखाजीकृत) चित्तविचारसंवाद, संपा. कीर्तिदा जोशी, प्रका. पोते, अमदावाद, १९९२. कृति रचनावर्ष धरावती नथी, परंतु अखाभगतनो कवनकाळ सत्तरमी सदी मध्यभाग नक्की थई शके छे. शब्दकोश बे विभागमां वहेंचायेलो छे सामान्य शब्दकोश तथा पारिभाषिक अने पौराणिक कोश. आ संकलित शब्दकोशमां सामान्य शब्दकोशना शब्दो ज लीधा छे, परंतु एमां पारिभाषिक कोशनो हवालो आप्यो छे त्यां पारिभाषिक कोशने आधारे आ संकलित कोशमां अर्थ आप्यो छे. सामान्य शब्दकोशमां ६०० उपरांत शब्दो छे. शब्दो परत्वे प्राप्त बधा संदर्भो नोंध्या छे. थोडाक शब्दो वर्णक्रमभंगथी मुकाया छे. जिनरा. जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि, संपा. अगरचन्द नाहटा, प्रका. सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टिट्यूट, बिकानेर, सं. २०१७. जिनरा. आमां समाविष्ट बे दीर्घ कृतिओ १६०८ अने १६२२नां रचनावर्षो धरावे छे, पण बीजी घणीबधी लघु कृतिओ रचनावर्षो धरावती नथी. ते उपरांत जयकीर्तिगणिनो जिनराजसूरि रास पण आमां समावायो छे. जिनराजसूरिनो जीवनकाळ १५९१थी १६४३ अने कवनकाळ १६०८थी १६४३ प्राप्त छे. जिनराजसूरि रास एमनी हयातीमां ज रचायो छे. शब्दकोशमां आशरे ५०० शब्दो छे. संगृहीत कृतिओमां कोईक प्राकृत छे ने घणा जैन पारिभाषिक शब्दो धरावे छे तेना शब्दो पण आ कोशमां छे. एकथी वधु स्थानो निर्देशायां छे, पण केटलाक शब्दोना अर्थ आपवाना रही गया छे. अर्थ हिंदी भाषामां आप्या छे तेनुं आ संकलित - कोशमां, जरूर लागी त्यां, गुजराती करी लीधुं छे. शब्दो क्वचित्‌ वर्णक्रमभंगथी मुकाया छे. तेरका. तेरमा-चौदमा शतकनां त्रण प्राचीन गुजराती काव्यो, संपा. हरिवल्लभ चू. भायाणी, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९५५. संगृहीत कृतिओ तेरमी सदी पूर्वार्धधी चौदमी सदी पूर्वार्धना गाळानी है. शब्दकोशमां आशरे १२५० शब्दो छे. लगभग अशेषपणे शब्दो नोंधवानुं वलण जणाय छे, तेथी ‘आसो’ ‘आहार’ ‘इंद्रमंडप’ जेवा शब्दो जोवा मळे छे, जेना अर्थो आपवानी संपादकने जरूर जणाई नथी. बधा शब्दोनी व्युत्पत्ति आपी छे ने सघळा स्थाननिर्देश कर्या छे. क्रियापदो मूळ धातु रूपे ज दर्शाव्या छे, जेम के ‘अवगन्’. ग्रंथपाठ शंकास्पद लाग्यो छे त्यां प्रश्नार्थ मूक्यो छे. ते ज रीते ज्यां अर्थ आपी शकायो नथी त्यां पण प्रश्नार्थ मूक्यो छे. त्रणे कृतिओना अनुवाद आपवामां आव्या छे त्यां आवां स्थानोनो अर्थ बेसाडवानी कोशिश करी छे, जेनो आ संकलित कोशमां लई शकायो त्यां आधार लीधो छे. दशस्कं (१). दशमस्कंध १, संपा. उमाशंकर जोशी अने हरिवल्लभ चू. भायाणी, प्रका. गुजरात युनिवर्सिटी, अमदावाद, १९६६. प्रेमानंदनी आ कृतिमां रचनावर्ष नथी, पण आ अधूरी रहेली कृति एमनी छेल्ली कृति होवानुं समजाय छे तेथी एनो रचनासमय सत्तरमी सदीनुं बीजु चरण गणाय. शब्दसूचिमां ५०० उपरांत शब्दो छे. केटलाक शब्दो परत्वे एकथी वधु स्थाननिर्देश छे. आ शब्दसूचि उपरांत कृतिनां पंक्तिवार टिप्पणो करेलां छे तेमां पण शब्दार्थो आपेला छे. आ संकलित कोशमां एनी क्वचित् मदद लीधी छे. दशस्कं (२). दशमस्कंध-२, संपा. उमाशंकर जोशी अने हरिवल्लभ भायाणी, प्रका. गुजरात युनिवर्सिटी, अमदावाद, १९७१. आ ग्रंथनी शब्दसूचिमां आशरे २५० शब्दो छे. अहीं पण टिप्पणो छे. देवरा. (अज्ञात कविकृत) देवकीजी छ भायारो रास, संपा. बिपिनचंद्र जी. झवेरी, प्रका. गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अमदावाद, १९५८. कृतिमां रचनावर्ष नथी पण एनी रचना अढारमी सदी पूर्वार्धनी अनुमानवामां आवी छे. शब्दसूचिमां आशरे ७०० शब्दो छे. काव्यनी शरूआतनी बेत्रण ढाळोमांथी प्रत्येक शब्द नोंध्यो छे, तेथी जेनो अर्थ आपवानी जरूर नथी लागी तेवा ‘अचरज’ जेवा शब्दो पण सूचिमां जोवा मळे छे. उच्चारभेदथी आवेला शब्दोने एमना क्रममां ज मूक्या छे, पण आ एक ज शब्दना उच्चारभेदो छे ए दर्शावती निशानी करी छे. ‘ख’थी आरंभाता शब्दो ‘ख’ना तेम ‘ष’ना क्रममां पण मुकाया छे. शब्दोनी व्युत्पत्ति संस्कृत, अरबीफारसी वगेरेमांथी नोंधी छे. विस्तृत टिप्पणो छे तेमां पण शब्दार्थो नोंधाया छे. शुद्धिपत्रकमां शब्दसूचिना कोई शब्दार्थनो ने केटलीक व्युत्पत्तिओनो सुधारो नोंधायो छे. नरका. नरसिंह महेतानी काव्यकृतिओ, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. साहित्य- संशोधन प्रकाशन, अमदावाद, १९८१. नरसिंह महेतानी कोई कृतिमां रचनावर्ष मळतुं नथी, पण नरसिंह महेतानो समय पंदरमी सदी मानवामां आव्यो छे. जोके नरसिंहने नामे पाछळथी घणु उमेरायुं होवानी शक्यता छे तेथी आ ग्रंथनो शब्दकोश पंदरमी सदीनो ज छे एम कहेतुं मुश्केल छे. शब्दकोश आशरे १३०० शब्दोने समावे छे. क्वचित्‌ पाठांतरमांथी पण शब्द लीघेल छे. ‘अंतराय’ ‘आभरण’ जेवा अत्यारे वपराता थोडा शब्दो पण एमां जोवा मळे छे. नरका-२. नरसिंह महेतानी काव्यकृतिओ, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. साहित्य - संशोधन प्रकाशन, अमदावाद, बीजी संशोधित आवृत्ति, १९८९. आ आवृत्तिमां पहेली आवृत्तिमां लीधेली केटलीक कृतिओ छोडी देवामां आवी छे ने तेथी शब्दकोशमां पण केटलोक फेरफार थयो छे. पहेली आवृत्तिना थोडा शब्दो आमां नथी, थोडाक नवा संदर्भो दाखल थया छे ने क्यांक अर्थनो फेरफार पण जोवा मळे छे. आ फेरफारो पूरतो, आवश्यकता जणाई तेटलो, आ बीजी आवृत्तिना शब्दकोशनो आ संकलित कोशमां उपयोग कर्यो छे. शब्दकोशनी शब्दसंख्या पहेली आवृत्तिथी खास फरक बतावती नथी. नरप. नरसें महेतानां पद, संपा. केशवराम का. शास्त्री, प्रका. गुजरात साहित्य सभा, अमदावाद, १९६४. आ ग्रंथमां आशरे १६५० सुधीनी बे हस्तप्रतोमांथी ज पदो लेवामां आव्यां छे. शब्दकोश नानकडो आशरे ७५ शब्दोनो छे. शब्दोनी व्युत्पत्ति आपेली छे. कोईक शब्द क्रमभंगथी मुकाया छे. ‘ज्योवन-नाडा’ शब्द छेक ‘धेडी’ पछी आवे छे! ‘चाउख’ने बदले ‘उख’ छपायुं छे. नरप (द). नरसिंह महेतानां पद (अप्रकाशित), संपा. रतिलाल वि. दवे, प्रका. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद, १९८३. आ संग्रहनां घणां पदोनुं भाषास्वरूप ए घणा मोडा समयनी रचनाओ होवानो संकेत करे छे. शब्दकोशमां आशरे १५० शब्दो छे. नलरा. (महीराजकृत) नलदवदंती-रास, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९५४, बीजी आवृत्ति, १९७७. कृति १५५६ (सं.१६१२) मां रचायेली छे. एनी साथे जोडवामां आवेल अज्ञात कविकृत नलदवदंती-चरित्रनुं रचनावर्ष नथी. पण एनी एक प्रतनुं लेखनवर्ष १४८३ (सं.१५३९) छे. ए कृति पंदरमा शतकना त्रीजा चरणमां रचायेली होवानुं अनुमान थयुं छे. बन्ने कृतिओने आवरी लेता शब्दकोशमां लगभग १२०० शब्दो छे. शब्दो विशे व्युत्पत्तिविषयक तेमज अर्थविषयक नोंधो आपवामां आवी छे अने मध्यकालीन गुजराती वगेरेना प्रयोगोना आधारो पण घणा शब्दो परत्वे दर्शाव्या छे. उच्चारभेदथी आवेला शब्दो एक मुख्य शब्दना पेटामां दर्शाव्या छे. जेम के ‘परिष’ नो अर्थ आपी पछी एना पेटामां ‘परिषी’ ‘परीखडी’ नोंध्या छे. आथी, देखीती रीते ज, वर्णक्रमभंग थाय. ‘ख’ उच्चारवाळा पण ‘ष’नी जोडणीवाळा शब्दो ‘ख’ना क्रममां ज मूक्या छे. नलाख्या. (भालणकृत) नलाख्यान, संपा. केशवराम का. शास्त्री, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, आवृत्ति बीजी १९६५. आ कृति रचनावर्ष धरावती नथी, परंतु भालणनो जीवनकाळ सोळमी सदी पूर्वार्ध आसपासनो होवानुं अनुमान थयुं छे. ११० पानां सुधी विस्तरता शब्दकोशमां आशरे ९०० शब्दो छे.. लगभग अशेषपणे शब्दकोश आपवानुं धार्यु जणाय छे, केम के एमां ‘अजगर’, ‘अढार’, ‘अधमुआ’, ‘अपार’, ‘अभिराम’ जेवा आजे जाणीता घणा शब्दो जोवा मळे छे (जे आ संकलित कोशमां लीधा नथी). शब्दो विशे व्युत्पत्तिदर्शक, व्याकरणविषयक अने अर्थविषयक वीगते नोंघ छे. नंदब. (शामळ भटकृत) नंदबत्रीसी अने कस्तुरचंदनी वारता, संपा. इंदिरा मरचंट, रमेश जानी, प्रका. भारतीय विद्याभवन, मुंबई, १९६७. बेमांथी एकेय कृति रचनावर्ष धरावती नथी पण कस्तुरचंदनी वारता, सिंहासन बत्रीसीनी २३मी वार्ता होई ए १७२९थी १७४५ सुधीमां रचायेली गणाय. शामळनी अन्य कृतिओ १७१८थी १७६५नां रचनावर्षो बतावे छे. बन्ने कृतिओना अलग शब्दकोशो छे. नंदबत्रीसीना शब्दकोशमां आशरे ९० तथा कस्तुरचंदनी वारताना शब्दकोशमां आशरे ७५ शब्दो छे. नेमिछं. (कवि लावण्यसमयविरचित) नेमि रंगरत्नाकर छंद, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद, १९६५. कृति १४९० (सं.१५४६) मां रचायेली छे. शब्दकोशमां ९०० जेटला शब्दो छे. ‘अणावइ’ ‘करि’ (करमां, कर वडे) जेवा केवळ मध्यकालीन अंत्य प्रत्ययवाळा शब्दोनो समावेश छे अने ‘गयणंगण’ ‘गयणंगणं’ ‘गयणंगणि’ ए जुदां विभक्तिरूपोवाळा शब्दो पण अलग नोंध्या छे. शब्दोनां व्याकरणी रूपो घणे स्थाने ओळखाव्यां छे ने व्युत्पत्ति पण दर्शावी छे. पंचवा. (अज्ञात गुजराती गद्यकार विरचित) पंचदंडनी वार्ता, संपा. सोमाभाई धू. पारेख, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९७४. कृतिनुं रचनावर्ष नथी, परंतु एनी हस्तप्रतनुं लेखनवर्ष १६८२ (सं.१७३८) मळे छे. शब्दकोशमां आशरे २०० शब्दो छे. ‘०का’ जेवा कोई प्रत्ययनो पण एमां समावेश छे. शब्दो विशे व्युत्पत्तिदर्शक विस्तृत नोंध छे ते उपरांत केटलाक शब्दोना अर्थने पूर्वपरंपरा आपीने वीगतथी समजाव्या छे. लेखनमां ‘ष’ पण उच्चारमां ‘ख’थी आरंभाता शब्दो ‘ख’ना क्रममां ज लीधा छे. ‘उणे’ (=एणे), ‘उवा’ (=ए), ‘क’ (=के), ‘कणे’ (=कोणे), ‘क्यु’ (-कह्युं) वगेरे शब्दो बतावे छे के कृतिनी हस्तप्रत तद्दन लौकिक, ग्राम्य उच्चारणोने अनुसरे छे. प्रद्युचु. (वाचक कमलशेखरकृत) प्रद्युम्नकुमार चुपई, संपा. महेन्द्र बा. शाह, अमदावाद, १९७८. कृतिनुं रचनावर्ष १५५० (सं.१६२६) छे. शब्दकोश आशरे २०० शब्दोने समावे छे. घणा शब्दोनी व्युत्पत्ति आपी छे अने केटलाक शब्दोना अर्थो माटे आधारो आप्या छे. प्रबोप्र. (भीमकृत) प्रबोधप्रकाश, संपा. केशवराम का. शास्त्री, प्रका. गुजरात विद्यासभा, अमदावाद, १९३६. कृतिनुं रचनावर्ष १४९० (सं.१५४६) छे. शब्दकोश आशरे २५० शब्दोने समावे छे. शब्दमूळ दर्शावेल छे ने क्वचित् शब्दनुं व्याकरणी रूप ओळखावेल छे. मध्यकाळमां ‘ज’ने स्थाने केटलीक वार ‘य’ लखातो. अहीं एवा शब्दो ‘य’मां ज रहेवा दीधा छे. जेम के, ‘यिशु’ (जिशु) ‘यीव’ (जीव), ‘यीवता’ (जीवतां). ‘क्ष’ने ‘क’ना जोडाक्षरना क्रममां नहीं, पण अंते ‘ह’ पछी मूकेल छे. प्राचीका. सत्तरमा शतकनां प्राचीन गूर्जर काव्य, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. गुजरात विद्यासभा, अमदावाद, १९४८. समाविष्ट कृतिओ १६०४ (सं. १६६०)थी १६९८ (सं. १७५४) नां रचनावर्षो बतावे छे. शब्दकोशमां आशरे ४०० शब्दो छे. शब्दोनां संस्कृत-प्राकृतादि मूळ दर्शावेल छे, समांतर हिंदी, बंगाळी, मराठी, अर्वाचीन गुजराती, प्रादेशिक गुजराती शब्दरूपो नोंध्यां छे ने क्वचित् अन्य प्रयोग पण आपेल छे. प्राचीफा. प्राचीन फागुसंग्रह, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, सोमाभाई धू. पारेख, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, बीजी आवृत्ति १९६०. संग्रह १२८५ आसपासथी १६८२ आसपासनी कृतिओने समावे छे. शब्दकोशमां आशरे ६०० शब्दो छे. एमां ‘०चइ’ जेवा केटलाक प्रत्ययोनो पण समावेश छे. शब्दो विशे पंचवा.ने धोरणे नोंधो थयेली छे. प्राचीसं. प्राचीन गूर्जर काव्यसंचय, संपा. ह. चू. भायाणी, अगरचंद नाहटा, प्रका. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद, १९७५. संगृहीत कृतिओ बारमीथी चौदमी सदी सुधीमां रचायेली छे. जूना समयनी केटलीक कृतिओनी भाषा अपभ्रंशप्रधान छे. शब्दकोशमां आशरे ८०० शब्दो छे. शब्दोना अर्थ संस्कृतमां आप्या छे. ते पछी घणे स्थाने गुजराती, हिंदी, मराठी वगेरेना मळता आवता शब्दो नोंध्या छे. आ संकलित कोशमां संस्कृतनुं गुजराती करी लीधुं छे. क्रियापदो धातु रूपे ज नोंध्या छे ‘खिज्’ वगेरे. उच्चारभेदवाळा शब्दो साथे लई लीधा छे ‘वछ’ ‘वाछ’ ‘वाछडउ’ तेथी वर्णक्रमभंग थाय छे. शब्दोनी व्युत्पत्ति पण आपी शकाई त्यां आपी छे. प्रेमप. (विश्वनाथ जानीरचित) प्रेमपचीसी, संपा. महेन्द्र अ. दवे, प्रका. गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अमदावाद, १९९२. कृति रचनावर्ष धरावती नधी, परंतु कविनी अन्य बे कृतिओ १६५२ (सं. १७०८) मां रचायेली मळे छे. शब्दकोश १५० जेटला शब्दोनो छे. एमां क्यांक वर्णक्रमभंग थयो छे. प्रेमाका. प्रेमानंदनी काव्यकृतिओ खंड १ अने २, संपा. केशवराम कां. शास्त्री, शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. साहित्य-संशोधन प्रकाशन, अमदावाद, १९७८ अने १९७९. प्रेमानंदनी कृतिओ १६६७ (संभवतः) के १६७१थी १६९०नां रचनावर्षो दर्शावे छे. आ संग्रहमां शामळशानो विवाह प्रेमानंदनी अधिकृत रचना नथी, ए अर्वाचीन समयनी सरजत होय एवुं ज जणाय छे. श्राद्ध पण प्रेमानंदनी कृति नथी पण ए मध्यकालीन तो छे ज, प्रेमानंद पछीना समयनी. ऋक्मिणीहरण, सप्तमस्कंध जेवी बीजी थोडीक कृतिओ पण प्रेमानंदनी होवा विशे शंका छे. ए पण पाछळना समयनी होवा संभव छे. आ ग्रंथमां आशरे ३२०० शब्दोंने अने रूढिप्रयोगोने समावतो मोटो कोश छे. एमां ‘आणे’ (लावे), ‘आदरुं’ (शरू करूं), ‘आणुं’ जेवा अत्यारे प्रचलित थोडा शब्दो छे ते आ संकलित कोशमां छोडी दीधा छे, ते उपरांत शामळशानो विवाह मध्यकालीन कृति न होई एना शब्दो पण छोडी दीधा छे. मदमो. (शामळ भटकृत) मदनमोहना, संपा. हरिवल्लभ चू. भायाणी, प्रका. भारतीय विद्याभवन, मुंबई, १९५५. कृतिमां रचनावर्ष नथी. परंतु शामळनी अन्य कृतिओ १७१८थी १७६५नां रचनावर्षो बतावे छे. ग्रंथमां ५०० उपरांत शब्दोने समावतो शब्दकोश छे. केटलाक शब्दोनी व्युत्पत्ति आपी छे. मदमो-२. (शामळ भटकृत) मदनमोहना, संपा. हरिवल्लभ चू. भायाणी, प्रका. पार्श्व प्रकाशन, अमदावाद, १९८९. पहेली आवृत्ति तरीके ओळखायेली आ वस्तुतः बीजी आवृत्ति छे. आ आवृत्तिनो शब्दकोश एकबे स्थाने अर्थनो सुधारो बतावे छे तेटला पूरतो अहीं एनो उपयोग कर्यो छे. मोसाच. (विश्वनाथ जानीरचित) मोसाळाचरित्र, संपा. महेन्द्र अ. दवे, प्रका. परिमाण प्रकाशन, अमदावाद, १९८७. आ कृतिनुं रचनावर्ष १६५२ (सं.१७०८) छे. शब्दकोशमां आशरे ८० शब्दो छे. रूपच. (शिवदासकृत) रूपसेन चतुष्पदिका, संपा. कनुभाई, व्र. शेठ, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९६८. कृतिमां रचनावर्ष नथी, परंतु कवि शिवदास सोळमी सदीना अंतमां के सत्तरमी सदीना आरंभमां थया होवानुं अनुमान थयुं छे. शब्दकोशमां ७० जेटला शब्दो छे. एमां क्वचित् वर्णक्रमभंग देखाय छे. रूस्तस. (कवि शामळ भट्टरचित) रूस्तमनो सलोको, संपा. हरिवल्लभ चू. भायाणी, प्रका. फार्बस गुजराती सभा, मुंबई, १९५६. कृतिनी रचना १७२५ (सं. १७८१) मां थयेली छे. शब्दकोशमां ८० जेटला शब्दो छे. एकथी वधु स्थाननिर्देश कर्या छे. परिशिष्ट रूपे एक प्रतमांनी टिप्पणीओ नोंधी छे तेमां केटलाक ‘शब्दार्थो छे ते शब्दकोशना शब्दो परत्वे पण क्यांक मार्गदर्शक बने छे. ललिरा. (क्षमाकलशकृत) ललितांगकुमार रास, संपा. कनुभाई व्र. शेठ, धनवंत ति. शाह, प्रका. समता प्रकाशन, अमदावाद, १९८२. कृतिनुं रचनावर्ष १४९७ (सं.१५५३) छे. शब्दकोशमां आशरे ८० शब्दो छे. एमां छापभूलो छे ने स्थाननिर्देशमां पण क्यांक भूल थयेली छे. लावल. कवि लावण्यसमयनी लघु काव्यकृतिओ, संपा. शिवलाल जेसलपुरा, प्रका. पोते, विरमगाम, १९६९. संगृहीत कृतिओ १४९७ (सं.१५५३)थी १५३१ (सं.१५८७) आसपासनां रचनावर्षो दर्शावे छे. शब्दकोशमां १८०० उपरांत शब्दो छे. एमां ‘गढ’ ‘दोट’ जेवा अत्यारे जाणीता कोई शब्दो छे, ‘नइ’ ‘नवउ’ ‘नडइ’ जेवा अत्यारना शब्दथी केवळ अंत्य स्वरनो ज उच्चारभेद दर्शावता शब्दो छे, ने ‘पइठउ’ ‘पइठा’ जेवा केवळ व्याकरणी रूपे करीने जुदा पडता शब्दो पण छे. शब्दोनां व्याकरणी रूपो ओळखाव्यां छे अने क्वचित् शब्दमूळ दर्शावेल छे. स्थाननिर्देश एकथी वधु करेल छे. वसंफा वसंतविलास फागु, संपा. मधुसूदन मोदी, प्रका. राजस्थान प्राच्य वसंफा (ल). विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, १९६०. कृतिनुं रचनावर्ष नथी, पण एना रचनासमय विशे १२५०थी १३५० सुधीनां अनुमानो थयां छे. आ संग्रहमां वसंतविलासनी बृहद् वाचना तथा लघु वाचना बन्ने आपवामां आवेल छे अने बन्नेना अलग शब्दकोश आपवामां आवेल छे. लघु वाचनाना शब्दकोशमां आशरे ५०० अने बृहद् वाचनाना शब्दकोशमां आशरे ८०० शब्दो छे. एमां ‘अति’ ‘अपार’ ‘अवतार’ ‘उदर’ जेवा अत्यारे प्रचलित शब्दो पण छे ते बतावे छे के शब्दकोश लगभग अशेषपणे करवानी नेम छे. शब्दोनी व्युत्पत्ति दर्शाववामां आवी छे. अर्थो अंग्रेजीमां छे, जेनो आ संकलित कोशमां अनुवाद करी लेवामां आव्यो छे. शुद्धिपत्रकमां शब्दकोशविषयक शुद्धिओ पण छे ने कृति विशे टिप्पणो छे तेमां पण शब्दार्थ-समजूती छे. वसंवि. वसंतविलास, संपा. कान्तिलाल ब. व्यास, प्रका. एन. एम. त्रिपाठी प्रा. लि., मुंबई, पुनर्मुद्रण १९६९. आमां पण बृहद् अने लघु बन्ने वाचना समाविष्ट छे. शब्दकोश बन्ने वाचनाने आवरी लेतो भेगो ज छे. एमां ९०० जेटला शब्दो छे. ‘अंग’ ‘अधीर’ ‘अनइ’ जेवा शब्दो बतावे छे के शब्दकोश लगभग अशेषपणे आपवानी नेम राखी छे. शब्दोनां व्याकरणी रूप ओळखाव्यां छे, एकथी वधु व्याकरणी रूप नोंध्यां छे अने व्युत्पत्ति पण आपी छे. अर्थ गुजराती तेमज अंग्रेजी बन्ने भाषामां आप्या छे, जेनो आ संकलित कोशमां लाभ लीधो छे. कृतिनां टिप्पण अने अनुवाद आपेलां छे ते पण मददरूप थई शके. कोईक उपयोगी शब्दो पेटामां जता रह्या छे तेथी शब्दकोशमां सीधा जोवा न मळे एवुं बन्युं छे. जेम के ‘अलि’ना पेटामां ‘अलिजन’ ‘अलिराज’ शब्दो छे, ‘नवी’ना पेटामां ‘नवनेह’ ‘नवरंग’ वगेरे शब्दो छे. वसंवि (ब्रा). ध वसंतविलास, संपा. डबल्यू. नॉर्मन ब्राउन, प्रका. अमेरिकन ऑरिएन्टल, न्यूहेवन, १९६२. आमां पण बन्ने वाचना छे. शब्दकोश बन्नेनो भेगो ज छे. अन्य संपादनोमां पाठांतर रूपे ज रहेलां पद्योना शब्दो पण अहीं शब्दकोशमां स्थान पाम्या छे. शब्दकोश सर्वग्राही छे अने १००० जेटला शब्दोने समावे छे. शब्दोनां व्याकरणी रूप ओळखाव्यां छे अने शब्दमूळ दर्शावेल छे. समासात्मक शब्दो समास रूपे नोंधाया छे, ते उपरांत पाछळनो शब्द घणी वार अलग पण आप्यो छे. ‘वंदरवाल’ जेवो शब्द तो बे टुकडे ‘वंदर’ अने ‘वाल’ एम ज मळे छे. वाग्भबा. (मेरुसुन्दर उपाध्याय कृत) वाग्भटालंकार बालावबोध, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९७५. बालावबोधनी रचना १४७९ (सं. १५३५) मां थयेल छे. शब्दकोशमां १३० जेटला शब्दो छे. ‘०तु’ जेवा प्रत्ययोनो पण एमां समावेश छे. स्थाननिर्देश एकथी वधु क्यांक बधा ज करेला छे. मूळ संस्कृत कृति पण आपेल होई अर्थोने चकासवानी एक सगवड मळे छे. विक्रच. (राजशीलकृत) विक्रमखापराचरित्र, संपा. कनुभाई व्र. शेठ, धनवंत ति. शाह, प्रका. समता प्रकाशन, अमदावाद, १९८२. कृति १५०७ (सं.१५६३)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां १२० जेटला शब्दो छे. केटलाक शब्दो परत्वे शब्दमूळ दर्शावेल छे. विक्ररा. (उदयभानुकृत) विक्रमचरित्र रास, संपा. बलवंतराय ठाकोर, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९५७. कृति १५०९ (सं.१५६५)मां रचायेली छे. बलवंतराय ठाकोरना आ मरणोत्तर प्रकाशननो शब्दकोश रणजित पटेले तैयार कर्यो छे. एमां आशरे ३०० शब्दो छे. उच्चारभेदवाळा शब्दो एक मुख्य शब्दना पेटामां नोंध्या छे. तेथी ‘भारोट’ना पेटामां ‘भारवट्टि’ मळे छे. विमप्र. (लावण्यसमयविरचित) विमलप्रबंध, संपा. धीरजलाल धनजीभाई शाह, प्रका. गुजरात साहित्य सभा, अमदावाद, १९६५. कृति १५१२ (सं. १५६८)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां ७०० उपरांत शब्दो छे. एमां ‘०हि’ वगेरे केटलाक प्रत्ययोनो पण समावेश थाय छे. विराप. (शालिसूरिविरचित) विराटपर्व, संपा. चिमनलाल त्रिवेदी, कनुभाई शेठ, प्रका. गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अमदावाद, १९६९. कृति पंदरमी सदीमां १४२२ पूर्वे रचाई होवानुं नक्की थाय छे. शब्दकोशमां ४५० जेटला शब्दो छे. ‘रखे’ ‘रडवडइ’ ‘रूपइ’ ‘रूडउं’ जेवा सामान्य उच्चारभेदथी अत्यारे प्रचलित शब्दो पण नोंघाया छे. शब्दोनां व्याकरणी रूपो ओळखाव्यां छे ने व्युत्पत्ति दर्शावी छे. वीसरा. ध वीसळदेव रास, ए रेस्टोरेशन ऑव् ध टेक्ट्स ज्हॉन डी. स्मिथ, प्रका. केम्ब्रिज युनिवर्सिटि प्रेस, केम्ब्रिज, १९७६. कृतिमां रचनावर्ष नथी, पण एनी रचना १४५० आसपासमां थई होवानुं अनुमानवामां आव्युं छे. शब्दकोश आशरे १४५० शब्दोने समावे छे. एकेएक शब्द अने एकेएक प्रयोग नोंधवामां आव्यो छे. एमां अत्यारे प्रचलित घणा शब्दो पण होय ज. देखीती रीते ज आ बघा शब्दोने आ संकलित कोशमां स्थान न होय. शब्दोना व्याकरणी पदप्रकार दर्शाववामां आव्या छे. क्रियापदो धातु रूपे ज नोंध्यां छे. शब्दमूळ दर्शाव्यां छे अने शब्दोनी विशेष समजूती माटे टिप्पणनो हवालो आप्यो छे. कृतिनो अनुवाद छे ते पण अर्थने स्पष्ट करवामां काम आवे तेम छे. अर्थो अंग्रेजीमां छे तेनो आ संकलित कोशमां गुजराती अनुवाद करी लीधो छे. राजस्थानी भाषानी एक लाक्षणिकता तरीके अहीं सर्वत्र ‘क’ राखवामां आव्यो छे, ‘ल’ नहीं, जो के वर्णक्रममां ए ‘ल’ने स्थाने ज छे. ‘ख’ उच्चारवाळा शब्दो ‘ष’ लिपिचिह्नथी अने ‘ष’ना ज क्रममां मुकाया छे. आ संकलित कोशमां एने ‘ख’ना क्रममां लई लीधा छे. वेताप. (शामळ भट्टकृत) वेतालपचीसी, संपा. अंबालाल स. पटेल, प्रका. भारतीय विद्याभवन, मुंबई, १९६२. कृतिनुं रचनावर्ष १७४५ (सं.१८०१) छे. शब्दकोशमां आशरे १७५ शब्दो छे. शब्दकोश हरिवल्लभ भायाणीए तैयार करेलो छे. शीलक. (उदयकलशकृत) शीलवती कथा, संपा. कनुभाई व्र. शेठ, धनवंत ति. शाह, प्रका. समता प्रकाशन, अमदावाद, १९८२. कृतिनुं रचनावर्ष १५५२ (सं.१६१८) छे. शब्दकोशमां आशरे १०० शब्दो छे. थोडा शब्दोमां व्युत्पत्ति दर्शावी छे. कोईक शब्दो वर्णक्रमभंगथी मुकाया छे. शृंगामं. (जयवंतसूरिकृत) शृंगारमंजरी (शीलवतीचरित्र रास), संपा. कनुभाई व्र. शेठ, प्रका. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद, १९७८. कृति १५५८ (सं.१६१४)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां ५०० उपरांत शब्दो छे. केटलाक शब्दोमां व्युत्पत्ति दर्शावी छे. शब्दकोशमां केटलीक छापभूलो रही गई छे. असंगत शब्द अने अर्थ पण एक स्थाने आवी गयेल छे ने वर्णक्रमभंग पण थयो छे. षडाबा. (तरुणप्रभाचार्यकृत) षडावश्यक बालावबोध, संपा. प्रबोध बे. पंडित, प्रका. भारतीय विद्याभवन, मुंबई, १९७६. शब्दकोशमां आशरे २३०० शब्दो छे. शब्दकोश सर्वग्राही करवानो आशय जणाय छे तेथी ‘अमुक’ ‘अरण्य’ ‘आदित्यु’ ‘आकर्षइ’ जेवा शब्दो जोवा मळे छे, जोके छतां कृतिमांना अनेक मध्यकालीन शब्दो कोशमां आवी शक्या नथी. शब्दोना अर्थ अंग्रेजीमां छे ने एमने विशे व्याकरण तथा व्युत्पत्तिविषयक वीगते नोंध छे, अन्यत्र मळता समांतर प्रयोगो पण नोंध्या छे. अनुस्वारवाळा शब्दो जे ते वर्णमां छेल्ले लीधा छे, जेम के ‘कौशाम्बी’ पछी ‘कंपावतउ’ ‘कांगुण’ वगेरे आवे छे, जो के ‘कृमि’ ए पछी छे. शब्दोना रूपभेदो पेटामां मूक्या छे ने एकथी वधु स्थाननिर्देश कर्या छे. षष्टिप्र. (नेमिचन्द्र भंडारीविरचित) षष्टिशतक प्रकरण (त्रण बालावबोध सहित), संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९४३. मूळ प्राकृत कृति परना त्रण बालावबोधो १४४० (सं. १४९६)थी १४६९ (सं.१५२५)नां रचनावर्षो बतावे छे. शब्दकोश स्वाभाविक रीते ज त्रण गुजराती बालावबोधोनो छे. एमां २७५ जेटला शब्दो छे. शब्दोनां व्याकरणी रूपो ओळखाव्यां छे, व्युत्पत्ति आपी छे अने अर्थविषयक विस्तृत नोंधो करी छे. स्थाननिर्देश बधा ज करवानी नेम जणाय छे. ‘रुलइ’ पछी ‘कुटकई’ अने ‘हूइ’ आवे एटलो मोटो वर्णक्रमभंग पण थयेल छे. उच्चारभेदवाळां शब्दो एक मुख्य शब्दना पेटामां दर्शाव्या छे. त्रण बालावबोधो लगभग समांतर चालता होई, एक बालावबोधना शब्दनो खुलासो बीजा बालावबोधमांथी मळे एवुं बने छे. सम्यचो. (यशोविजयजीविरचित) सम्यक्‌त्व षट्स्थान चउपइ (स्वोपज्ञ बालावबोध सहित), संपा. प्रद्युम्नविजयजी गणि, प्रका. अंधेरी गुजराती जैन संघ, मुंबई, सं.२०४६. कृति तथा बालावबोध बन्ने मुजरातीमां छे. बालावबोध १६८५ (सं.१७४१)मां रचायो होय एम समजाय है. यशोविजयजीनी अन्य कृतिओ १६५५थी १६८३नां रचनावर्षो बतावे छे. शब्दकोश नानकडो ३३ शब्दोनो ज छे, जेमां स्वाभाविक रीते ज घणा मध्यकालीन शब्दो बाकात रह्या छे. अहीं लाभ ए छे के मूळ गाथाना शब्दनो स्वोपज्ञ वृत्तिमां ज अर्थ करेलो छे. तेथी तत्कालीन शब्दार्थनी सीधी माहिती मळे छे. सिंहा (म). (मलयचन्द्रकृत) सिंहासनबत्रीसी, संपा. रणजित मो. पटेल (‘अनामी’) प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९७०. कृति १४६३ (सं.१५१९)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां १२० जेटला शब्दो छे. घणा शब्दोनी व्युत्पत्ति आपी छे, एकथी वधु स्थाननिर्देश कर्या छे अने अर्थविषयक नोंधो पण छे. क्रियापदो धातु रूपे आपी पछी कृतिमांनुं एनुं व्याकरणी रूप पण आप्युं छे. क्वचित् उच्चारभेदवाळो शब्द पेटामां मुकायो छे, जेम के ‘अखत्र’ना पेटामां ‘अखंत्र’. सिंहा (शा). (शामळ भट्टकृत) सिंहासनबत्रीशी, संपा. हरिवल्लभ भायाणी, प्रका. भारतीय विद्याभवन, मुंबई, १९६०. आमां संघरायेली सिंहासन बत्रीशीनी वार्ताओ १७२९थी १७४५ना गाळामां रचायेली छे. शब्दकोशमां २५० जेटला शब्दो छे. स्थाननिर्देश बधा कर्या होय एवुं जणाय छे. केटलाक शब्दोनी व्युत्पत्ति दर्शावी छे. स्थूलिफा. (हलराजकृत) स्थूलिभद्र फागु एक परिचय, संपा. कनुभाई व्र. शेठ, स्वाध्याय पु.८ अं.३, एप्रिल १९७१. कृति १३५३ (सं.१४०९) मां रचायेली छे. शब्दकोशमां आशरे ७० शब्दो छे. क्वचित् वर्णक्रमभंग थयो छे. हम्मीप्र. (अमृतकलशकृत) हम्मीरप्रबंध, संपा. भोगीलाल ज. सांडेसरा, सोमाभाई धू. पारेख, प्रका. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, १९७३. कृति १५१८ (सं.१५७५)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां २०० उपरांत शब्दो छे. उच्चारभेदचाळा शब्दो पेटामां मूक्या छे. केटलाक शब्दोमां स्थाननिर्देश एकथी वधु कर्या छे. हरिख्या. (रतनदासकृत) हरिश्चन्द्राख्यान, संपा. केशवलाल ह. ध्रुव, प्रका. गुजरात विद्यासभा, अमदावाद, १९२७. कृति १६४८ (सं. १७०४)मां रचायेली छे. शब्दकोशमां आशरे २७५ शब्दो छ ‘दारिद्र्य’ ‘दिनकर’ जेवा घणा जाणीता संस्कृत शब्दो एमां छे. शब्दमूळ दर्शावेल छे. हरिवि. (अज्ञातकर्तृक) हरिविलास रासलीला, संपा. हरिवल्लभ भायाणी अने अन्य, प्रका. पोते, अमदावाद, १९८८. कृतिनुं रचनावर्ष नथी, पण एनो रचनासमय १४५०थी १५५० (विक्रमनी सोळमी शताब्दी) अनुमानवामां आव्यो छे. संग्रहमां बीजी कृतिओ पण छे, परंतु शब्दार्थ हरिविलासना ज आपवामां आव्या छे. एमां ९० जेटला शब्दो छे. थोडा शब्दोमां व्युत्पत्ति आपी छे. कृतिनो अनुवाद आपवामां आव्यो छे तेमांथी केटलाक शब्दार्थनी चावी मळे छे.