મધ્યકાલીન ગુજરાતી શબ્દકોશ/ન વીસરવા જેવો વારસો

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न वीसरवा जेवो वारसो

बारमी सदीथी ओगणीसमी सदी पूर्वार्ध सुधीनुं गुजराती साहित्य, जेने आपणे प्राचीन के मध्यकालीन गुजराती साहित्य तरीके ओळखीए छीए ए आपणो एक न वीसरवा जेवो, मूल्यवंतो वारसो छे. आम कहेवानुं प्राप्त थाय छे ते एटला माटे के ए साहित्य आपणे माटे हवे केटलुं प्रस्तुत रह्युं छे ए विशे आपणने शंका छे अने शाळा-महाशाळाना आपणा अभ्यासक्रमोमां एनुं स्थान घटतुं जई रह्युं छे. मध्यकालीन साहित्य एटले भक्तिवैराग्यनुं गाणुं अने ऊछरती पेढीने एना पाठ भणाववानुं औचित्य केटलुं एवो प्रश्न करवामां आवे छे अने महाशाळानी कक्षाए पण एना अभ्यासनी सार्थकता आपणने झाझी वरताती नथी. शाळाकक्षानां पाठ्यपुस्तकोमां मध्यकालीन कृतिओनुं प्रतिनिधित्व अत्यारे चारछ कृतिओ पूरतुं पाठ्यपुस्तकना पांचमा-छठ्ठा भाग जेटलुं थई गयुं छे अने गुजरात युनिवर्सिटीना द्वितीय वर्ष बी.ए.ना मध्यकालीन गुजराती साहित्यना प्रश्नपत्रमां हमणां ज नर्मदयुगने जोडी दईने मध्यकालीन साहित्यना अभ्यासने पांखो बनावी देवामां आव्यो छे. पाश्चात्य प्रजाना संपर्क पछी, आपणने एवुं लागे छे के, आपणां जीवन अने साहित्यनी दिशा एटलीबधी बदलाई गई छे के आपणे पूर्वकाळथी जाणे विच्छिन्न थई गया छीए. आपणी रहेणीकरणी, आपणां साधनसगवड, आपणां विश्वासो-मान्यताओ, आपणां ज्ञानविज्ञान, आपणां तंत्रो-संस्थाओ आ बधांमां क्रान्तिकारक परिवर्तन आव्यां छे अने आपणा साहित्ये जुदां ज आदर्शो, प्रयोजनो अने रचनारीतिओ धारण कर्यां छे. पूर्वकाळना साहित्यमां रस लेवानुं, तेथी, आपणे माटे बहु ओछुं शक्य रह्युं छे अने ए साहित्यप्रणालिका आजे आपणने कंई काममां आवी शके एवुं पण आपणने खास देखातुं नथी. मध्यकालीन साहित्य धर्मना संकुचित वाडामां बंधायेलुं छे जीवननी विशाळता एमां व्यक्त थती जणाती नथी, ए परंपरानिष्ठ छे एमां मौलिकतानो अनुभव आपणने खास थतो नथी, ए हेतुलक्षी छे एमां कळासर्जननी स्वायत्तता प्रतीत थती नथी. ए वात साची छे के मध्यकालीन साहित्य बहुधा कंईक ने कंईक धार्मिक सांप्रदायिक संदर्भ लईने आवे छे. आनुं कारण ए छे के मध्यकाळमां धार्मिक सांप्रदायिक संस्थाओए साहित्यने आश्रय आप्यो छे अने वधारे अगत्यनुं तो ए छे के मध्यकाळमां प्रजाजीवन धर्मसंप्रदायबद्ध हतुं. केटलीक वार जैन साहित्यने ज सांप्रदायिकतानी छाप लगाववामां आवे छे, जाणे के जैनेतर साहित्यमां सांप्रदायिकता न होय. आ यथार्थ दर्शन नथी. ब्राह्मणधर्म के हिन्दुधर्मनां तत्त्वो विशाळ जनसमाजमां फेलायेलां छे अने इतर प्रजावर्गोनेये एटलांबधां परिचित छे के एमां सांप्रदायिकता भासती नथी. जैनधर्मीओए पण एमांनु केटलुंक स्वीकारी लीधुं छे. त्यारे जैन धर्मनां तत्त्वो एटलां अन्यपरिचित नथी. नवकारमंत्रनो महिमा, नवपदपूजा, दानमहिमा, कर्मवाद, दीक्षा वगेरेमां सांप्रदायिकता छे, तो अवतारवाद, अद्वैतवाद, यज्ञयागादि कर्मो, कृष्ण-शिव-शक्तिभक्ति, वर्णाश्रमधर्म वगेरेमां सांप्रदायिकता नथी एम केम-कहेवाय ? शामळनी कौतुकरसप्रधान लोकवार्ताओमां पण आवी रेखाओ तो जडवानी. हिंदु संस्कार बहुमती संस्कार छे, एनाथी अलिप्त बीजा प्रजावर्गो भाग्ये ज रही शके. त्यारे जैन, मुस्लिम, ख्रिस्ती वगेरे लघुमती संस्कार छे. ए अलग पडी जवाना अने तेथी एमां सांप्रदायिकता सहेजे प्रतीत थवानी. सांप्रदायिकतानुं ओछुवत्तुं भारण ए जुदी चीज छे अने सांप्रदायिकताने वटी जती बौद्धिक प्रतिभा अने काव्यशक्ति प्रवर्ते ए पण जुदी बाबत छे. एथी कृतिमां धार्मिक-सांप्रदायिक संस्कारनी भूमिका होवानुं मिथ्या थतुं नथी. मध्यकाळमां प्रजाजीवन धर्मसंप्रदायबद्ध हतुं एनो अर्थ एवो थतो नथी के ए समयना लोको, मुनशी कहे छे तेम, परलोकपरायण थई गया हता, भक्तिवैराग्यमय जीवन जीवता हता ने ऐहिक जीवनरसो परत्वे अनासक्त हता. प्रजाजीवनना केन्द्रमां धर्म हतो, पण एनी आजुबाजु संसार एना सर्व रंगो साथे विस्तरेलो हतो. मध्यकाळमां ज्ञानभक्तिवैराग्यनां गाणां ज मळे छे एवुं थोडुं छे ? आख्यानो, लोकवार्ताओ, रासाओ आदिनुं साहित्य पण विपुल प्रमाणमां मळे छे, जेमां ऐहिक जीवनना घणा रसो व्यक्त थया छे, भले एमां ओछोवत्तो धार्मिक संदर्भ रहेलो होय. अने भक्तिसाहित्य खास करीने कृष्णभक्तिनुं साहित्य लौकिक मानवभावो सहज मानवसंवेदनोथी नथी धबकतुं शुं ? मध्यकालीन साहित्य जीवनरसथी अनभिज्ञ प्रजानुं सर्जन नथी ज, भले एना जीवनादर्शो जुदा होय. अने आपणुं जीवन पाश्चात्य संस्कृतिने रंगे शुं एटलुंबधुं रंगाई गयुं छे के आपणे मध्यकालीन साहित्य साथे कशो अनुबंध न अनुभवी शकीए ? आकाशवाणी वहेली सवारमां ज (अने पछीथी पण) भजनसंगीत रेलावे छे, लोकसाहित्यना डायराओमां लोको ऊमटे छे अने गुजराती फिल्म-उद्योग मध्यकालीन कथावार्ता पर ज नभे छे एनुं शुं ? समाजनो एक मोटो वर्ग कया वातावरणमां श्वसे छे एनो ए संकेत नथी शुं ? हिंदी फिल्मोमां निरुपातुं परंपरागत कुटुंबजीवन अने एनी समस्याओ लोकोने पोतीकां नथी लागतां ? वस्तुतः आपणुं आधुनिक जीवन पाश्चात्य संस्कारो अने परंपरागत भारतीय संस्कारोना अजब मिश्रण समु छे. संयोगोए आपणा कुटुंबने विभक्त कर्युं छे, पण विच्छिन्न कर्युं नथी. हजु आपणे सामाजिक प्रसंगोथी, कर्तव्योथी, अपेक्षाओथी, भावनाओथी बंधायेला रह्या छीए अने सांसारिक-सामाजिक-कौटुंबिक सुखदुःखोना अनुभव आपणे माटे अशेष थई गया नथी. आपणी ज्ञातिसंस्थानुं अस्तित्व मट्युं नथी, एणे नवां कार्यो स्वीकारी पोतानी जातने टकावी राखी छे. धार्मिक संस्थाओ हजु मजबूत अने प्रभावक रही छे, अने धार्मिकता-आध्यात्मिकताना नवां मोजां पण लहेरातां देखाय छे. मध्यकालीन साहित्यनी दुनिया आपणे माटे सर्वांशे परायी थई गई होय एवुं लागतुं नथी. एमां एवा अंशो जरूर छे जेनी साथे आपणों चित्त अनुबंध जोडी शके. ऊलटुं आधुनिक साहित्यना केटलाक मनोभावो बहुजनसमाजने पराया जेवा लागे छे अने एमां रस लेवानुं एमनाथी थतुं नथी. मध्यकालीन साहित्यमां केटलाक जीवनप्रदेशो-अनुभवक्षेत्रो बाकात रह्यां छे जरूर, पण एनी दुनिया आपणे मानी लीधी छे एटली सांकडी छे के केम ए विचारवा जेवुं छे. स्थूळ रीते ज जोईए तो ज्ञान-भक्ति-वैराग्यना विपुल पदसाहित्य उपरांत एमां फागु-बारमासा जेवां केवळ प्रकृतिवर्णन ने मनोभाववर्णननां काव्यो छे, पौराणिक- लौकिक-ऐतिहासिक कथाकाव्यो छे, चरितकाव्यो छे, रूपककाव्यो छे, तत्त्वविचारात्मक ने खंडनमंडनात्मक कृतिओ छे, विवादकाव्यो छे, तथा अनेक प्रकीर्ण प्रकारनी कृतिओ छे. आपणा साहित्य-इतिहासो मध्यकाळना साहित्यना सर्व आविष्कारोनी पूरती नोंध भाग्ये ज लई शके छे. जेम के, आपणे गणतर ऐतिहासिक काव्योनी नोंध लई, ए प्रकारना साहित्यनी ओछपनी फरियाद करता होईए छीए, पण जैन कविओने हाथे श्रेष्ठीओ तथा साधुओनां चरित्र तेमज तीर्थयात्राओ वर्णवता जे अनेक रासाओ रचायेला छे एमां पडेली इतिहाससामग्री आपणा लक्ष बहार होय छे. ऋषभदासकृत ‘हीरविजयसूरि रास’मांथी मळतो मोगलकाळनो केटलोक इतिहास आनो एक दाखलो छे. समकालीन प्रजाजीवननी घणी रेखाओ पण आ रासाओमां गूंथायेली होय छे. वैष्णव आचार्योनां केटलांक चरितकाव्योमां पण आवी सामग्री छे, जेने विशे आपणे लगभग कशुं जाणता नथी. स्वामिनारायण संप्रदायमां सहजानंद स्वामी विशेनां अनेक काव्योमांथी पण आ प्रकारनी सामग्रीनो अभ्यास करवानुं हजु बाकी छे. सांस्कृतिक अध्ययननी तो भरपूर सामग्री मध्यकालीन साहित्यमां वेरायेली पडी छे. वर्णकोने रूपे एवी सामग्री संचित पण थई छे. भोगीलाल सांडेसरा-संपादित ‘वर्णकसमुच्चय’ ना बे भागमां वर्णको ने एनो अभ्यास प्रस्तुत थयां छे ए आना नमूनारूप छे एमां आवरी लेवायेला विषयो केटलाबधा छे : भोजनसामग्री, वस्त्रो, आभूषणो अने सुशोभनो, रत्नो, विद्याकला अने मंत्र, लिपि, वाजिंत्र-वाद्य, देशप्रदेश स्थानविशेष आदि, नगररचना अने स्थापत्य, राजलोक अने पौरलोक, राजवंश, शस्त्रास्त्रो अने युद्धसामग्री, अश्वजाति, करवेरा, नौयान, रोग, व्रत, लब्धि. आ विषयोनी केटली वीगतो प्राप्त छे ए जोईए तो आशरे ३५० जेटलां खाद्य पदार्थो अने वानगीओ नोंधायेल छे; पदार्थोनी जुदीजुदी जातिओ अने बनावटो पण एमां छे, जेम के चोखानी ३० जेटली जातो, लाडुना ५० जेटला प्रकारो अने १०० जेटलां शाक. केटलीक वानगीओ केम बनावाय छे तेनी प्रक्रिया वर्णवाई छे तेमज भोजननी बेठकव्यवस्था अने पिरसणविधिनां मनोरम चित्रो आलेखायां छे. आ वर्णको उपरांतनो बीजो घणो रसिक सांस्कृतिक संभार मध्यकालीन कृतिओमां सचवायेलो छे. पण सामान्य रीते एने बाजु पर राखीने ज कृतिनो आस्वाद करवा आपणे टेवायेला छीए तेथी घणी वीगतो आपणा लक्ष बहार रहे छे. नरसिंह महेता जेवा आपणा प्रियतम कविनां पदोमां रहेली वैष्णव परंपरानी केटलीक लाक्षणिक सांस्कृतिक रेखाओने ओळखवा आपणे प्रयास कर्यो नथी ने एथी काचां अर्धघटनो पर निर्भर अधूरा काव्यास्वादोथी आपणे रीझ पामीए छीए. मध्यकालीन गद्यसाहित्यनी समृद्धिथी तो आपणे अजाण जेवा छीए. मोटा भागनी कृतिओ तो हजु प्रकाशनी राह जोती हस्तप्रतभंडारोमां दटायेली पडी छे. एमां कथावार्ता, चरित्र, तीर्थ-इतिहास, गच्छ-परंपरा, धर्मोपदेश, आचारविधि, तत्त्वज्ञान, योग, गणित, ज्योतिष, सामुद्रिकशास्त्र, शकुनशास्त्र, कोकशास्त्र, रमलतंत्र, वैदक, शिल्प, अलंकारशास्त्र, व्याकरण, कोश, संगीतविद्या आदि अनेक विषयो खेडायेला जोवा मळे छे. गद्यसाहित्य बहुधा बालावबोधो रूपे - संस्कृत-प्राकृत-गुजरातीना कोई मूल ग्रंथना विवरण रूपे जैन साधुकविओ पासेथी प्राप्त थाय छे एटले जैन शास्त्रोनी एमां प्रधानता होय ए समजाय एवुं छे पण उपर नोंधेला विविध विषयोना अने ‘भगवद्‌गीता’ ‘अमरुशतक’ जेवी कृतिओना बालावबोधोनो पण एमां समावेश छे ए आ गद्यसाहित्य द्वारा केवी व्यापक ज्ञानोपासना थई छे अने लोकशिक्षणनो केवो मोटो उद्यम थयो छे ए बतावे छे. मध्यकालीन साहित्यनी देखीती एकविधतानी नीचे जिवाता जीवननां अने जगतज्ञाननां केवां वैविध्योने अवकाश मळ्यो छे एनुं आ दिग्दर्शनमात्र छे. हस्तप्रतभंडारोमां दटायेलुं मध्यकालीन साहित्य हजु बहार आवशे अने एनो सूक्ष्मताथी, गहनताथी अने सर्वांगीपणे अभ्यास थशे त्यारे एना वैविध्यनी आपणने कदाच वधारे प्रतीति थशे. बारमाथी ओगणीसमा सैका सुधीना सातसो वरसना गाळामां सैकावार जे विपुल साहित्य गुजराती भाषामां मळे छे ए जगतसाहित्यमां एक विरल घटना छे. भाषाविकासनुं अने भाषाभिव्यक्तिनी कलानुं एक समृद्ध चित्र एमांथी आपणने मळे छे. एनां शब्दराशि, रूढिप्रयोगो, वाक्यछटाओ, वाग्भंगिओ सर्व कंईमां आपणा रसविषय बनवानी क्षमता छे. ए भाषाजगतनो विहार कौतुकभर्यो बने तेम छे. आपणे अखाभगत के प्रेमानंदनी वाक्शक्तिने पिछानीए छीए अने एना पर वारी जईए छीए, पण सातसो वरसना साहित्यना भाषावैभवने प्रत्यक्ष करवो आपणे बाकी छे. ए मोटो पुरुषार्थ मागे पण ए पुरुषार्थनुं पूरतुं वळतर मळी रहे तेवो ए वैभव छे. एना शब्दजगतनी कंईक झांखी अहीं रजू थयेला मध्यकालीन गुजराती शब्दकोशथी थशे, तो भाषाविकास, रूढिप्रयोगो, वाग्भंगिओ वगेरेनो एक नानकडो दस्तावेज हरिवल्लभ भायाणीना ‘गुजराती भाषानुं ऐतिहासिक व्याकरण’मांथी सांपडशे पण अनेक प्रकाशित-अप्रकाशित कृतिओमां सावधानपणे विहरवुं अने एना भाषावैभवने झीलवो ए जुदी वात छे. बालावबोधोनी गद्याभिव्यक्ति, जे वधारे जीवंत अने वास्तविक छे एनो तो आपणने अंदाज ज नथी. आपणे एम मानीने चालीए छीए के मध्यकाळमां गद्य कां तो ‘पृथ्वीचंद्रचरित्र’ जेवुं पद्यकल्प गद्य छे, कां तो विवरणनुं शास्त्रीय गद्य छे. वास्तविक व्यवहारु गद्य तो जाणे पहेली वार ज ‘वचनामृत’मां सांपडे छे. पण मध्यकाळमां शास्त्रीय बालावबोधोमां पण खास करीने एमां आवती दृष्टांतकथाओमां तळपदा शब्दो ने रूढिप्रयोगो तथा बोलाती वाणीनी लढणो धरावतुं जीवंत गद्य आपणने मळे ज छे. बारमाथी ओगणीसमा सैका सुधीनुं जे विपुल साहित्य आपणने मळे छे ते जैन संप्रदाये ऊभा करेला ज्ञानभंडारोने आभारी छे. स्वाभाविक रीते ज एमां जैन साहित्य वधारे सचवायुं होय. प्राप्त मध्यकालीन साहित्यमां जैन संप्रदायनो हिस्सो घणो मोटो लगभग ७५ टका जेटलो छे एनुं कंईक कारण एमांथी आपणने जडी आवे छे. आ जैन साहित्यमांथी घणुं आपणे सांप्रदायिक गणीने आपणा अभ्यासनी बहार राख्युं छे. पण ते उपरांत पुष्टिसंप्रदायना सघळा साहित्यने पण आपणे लक्षमां लीधुं नथी, भले, नरसिंह, मीरां, दयाराम जेवां कृष्णभक्तिना कविओमां आपणे घणो रस लीधो होय. स्वामिनारायण संप्रदायना साहित्यनो आपणो अभ्यास बहु थोडा साधुकविओ पूरतो मर्यादित छे तो रविसाहेब जेवा कबीरपरंपराना संतकविओ, मुस्लिम संतकविओ वगेरे अनेक धार्मिक सांप्रदायिक साहित्यप्रवाहोना कविओनो आपणे संपूर्ण अभ्यास कर्यो छे एवुं कहेवाय एवुं नथी. खोजा कविओ ने अनेक रूखडिया संतकविओ अने भजनिको तरफ तो आपणे नजर पण करी नथी. प्रणामी संप्रदायना प्रवर्तक प्राणनाथ स्वामी अने एमना साहित्यिक प्रदाननी हजु हमणां ज आपणने खबर पडी छे. आवा अनेक नानामोटा धर्मसंप्रदायो अने परंपराओए मध्यकाळना गुजराती साहित्यनुं घडतर कर्यु छे अने एमने ज्यारे योग्य न्याय मळशे त्यारे मध्यकालीन साहित्यनुं आपणुं दर्शन बदलाशे, परिपूर्ण बनशे अने अनेक नूतन प्राप्तिओ आपणने थशे. जयंत गाडीत घणा वखतथी मध्यकाळना धार्मिक-सांप्रदायिक साहित्यप्रवाहोनो अभ्यास करवानी अभिलाषा सेवी रह्या छे, ते एमनी अभिलाषा वहेलासर फळीभूत थाय एवुं आपणे इच्छीए. मध्यकालीन गुजराती साहित्य बहुधा परंपराग्रस्त छे अने एमां मौलिक सर्जकतानो अनुभव ओछो थाय छे ए फरियादना संदर्भमां बेत्रण बाबतो लक्षमां राखवी जोईए. एक तो ए के औपचारिक शिक्षणव्यवस्था नहींवत् हती एवा ए समयमां साहित्य पर लोकशिक्षणनी अने परंपराना सातत्यने नभाववानी जवाबदारी आवी पडी हती. आ कारणे मौलिकतानुं आजना जेवुं मूल्य के महत्त्व ए वखते ऊभुं थयुं नहोतुं अने अनुसर्जन, अनुकरण के ऊछीनुं लेवामां कशो बाध मनातो न हतो. प्रेमानंद जेवा प्रथम पंक्तिना आख्यानकार आखुं ने आखुं कडवुं पुरोगामीमांथी उठावी लेवामां कशुं अनुचित न माने, सर्जकता परंपरानो लाभ लईने आगळ वधवामां जाणे धन्यता अनुभवती हती. मौलिकता करतां परिणामनी उत्तमता एने माटे जाणे वधारे महत्त्वनी हती. छेवटे, परंपराने झीलवानां सूझ-सामर्थ्य होय छे अने परंपराना सर्जनात्मक-कलात्मक विनियोग जेवी पण कोई चीज होय छे, तेथी परंपरानिष्ठता पोते कोई अपमूल्य नथी, जेम केवळ मौलिकता पण, कदाच, आपोआप कोई मूल्य नथी. ‘वसंतविलास’, जयवंतसूरिकृत ‘शृंगारमंजरी’ अने गणपतिकृत ‘माधवानलकामकंदलाप्रबंध’ पर संस्कृत-प्राकृत साहित्यपरंपरानो प्रबळ प्रभाव छे, परंतु आ परंपरा तो बीजाओ पासे पण हती. आवुं परिणाम अन्य कोई सिद्ध करी शकतुं नथी ए शुं बतावे छे ? आ कृतिओना रचयिताओ पासे परंपरानी जे अभिज्ञता अने रसज्ञता छे ते कंईक अनन्य छे अने पोतानी सर्जकताने एमणे परंपरानी भूमिमां रोपी छे एम कहेवाय. अखाभगतमां ज्ञानमार्गी कविताधारानो तो प्रेमानंदमां आख्यानकवितानी परंपरानो उत्कर्ष छे. अने दयाराम पासे तो कृष्णभक्तिनी परंपरानो केटलो लांबो वारसो छे ! पण ए वारसाने, रामनारायण पाठक कहे छे तेम, एमणे दीपाव्यो छे, उजाळ्यो छे. मध्यकालीन साहित्ये परंपराबद्ध रहीने पण भावविचारद्रव्य, कथाघटको, वर्णनरूढिओ, पद्यबंधो, प्रास, ध्रुवा, वाग्भंगिओनी जे समृद्धि निपजावी छे ए असाधारण छे अने अखाभगत, प्रेमानंद वगेरे थोडा कविओना जेवा प्रतिभावंत सर्जको तो आज सुधीना गुजराती साहित्यमां आपणने गणतर ज सांपडे छे. गुजराती भाषा जेमने माटे हंमेशां गौरव अनुभवी शके एवा ए साहित्यस्वामीओ छे. बेशक, मध्यकालीन साहित्य बहुधा हेतुलक्षी छे – पछी ए हेतु वैचारिक मतनी स्थापनानो होय, धर्मबोधनो होय, सांप्रदायिक महिमागाननो होय के लोकशिक्षणनो होय. मध्यकाळना रचयिताओ पोताने कवि तरीके ओछु ओळखावे छे, ए भक्तो छे, ज्ञानीओ छे, संतो छे, कथा कहेनारा ‘भटो’ छे. कविकर्मनी सभानता एमनामां केटली हशे ए कहेवुं मुश्केल छे. पण ए याद राखवुं जोईए के कोई पण प्रकारनी हेतुलक्षिताथी साव अलिप्त, केवळ रसलक्षी कहेवाय एवी थोडीक, ‘वसंतविलास’ ‘माधवानल - कामकंदलाप्रबंध’ जेवी कृतिओ आपणने मध्यकाळमां मळे ज छे. जैन साधुकविने हाथे पण ‘विराटपर्व’ के ‘वसंत फागु’ जेवी धर्मबोधना ने सांप्रदायिकतानाये स्पर्श विनानी कृतिओ मळे छे. एवी तो अनेक कृतिओ मळे छे, जेनी भोंय चोक्कस धर्मसंस्कारनी परंपरानी होय पण समग्र निरूपण रसलक्षी ज होय. राधाकृष्णविषयक बारमासा वगेरे प्रकारनी घणी कृतिओ आमां आवे, तो जयवंतसूरिना ‘स्थूलिभद्रकोशाप्रेमविलास फाग’ जेवी कृतिमां पण वस्तु जैनपरंपरानुं छे, ए बाद करीए तो ए शुद्ध विरहकाव्य ज बनी रहे छे. एमां जैनत्वनी बीजी कशी छाया पडेली नथी. अने धर्मोपदेशनो के एवो हेतु गौण के आनुषंगिक बनी जतो होय अने कविकौशलनुं प्रवर्तन ने रसदृष्टि मुख्य बनी जतां होय एवी कृतिओनो तो मध्यकाळमां तोटो नथी. आख्यानकविता अने जैन रासाओ निर्मायेला तो छे कशाक धार्मिक-सांस्कृतिक बोथ माटे, एवी सामग्री एमां ओछीवत्ती होय छे, छतां एनी साथेसाथे एमां कथारस, जनस्वभावरस, वर्णनरस अने पद्यरस पण वहे छे. शामळ भट्टमां कवित्व कंई ऊँची कोटिनुं नथी, ने एमनी वारताओनो एक महत्त्वनो हेतु लोकशिक्षण छे, तेम छतां कथाकौतुकरसथी ए वार्ताओ छलकाय छे अने आस्वाद्य बने छे. कविनी प्रतिज्ञा के एना प्रगट हेतुथी आपणे भ्रान्तिमां पडी एनाथी विमुख थई जवा जेवुं नथी. छेवटे, साहित्यनी शुद्धता ए कंई कलात्मकतानो पर्याय नथी अने हेतुनिष्ठता कंई अनिवार्यपणे कलात्मकताने अवरोधक नथी. ज्ञानवैराग्यभक्तिना भावो ने उपदेशवृत्ति सुध्धां काव्योचित विषय होई शके छे. काव्यभावनी व्याख्या संकुचित करवानी जरूर नथी. भारतीय काव्यशास्त्रे भावो (संचारिभावो) नी लांबी यादी करी छे अने आपणे एमां उमेरो करी शकीए. भक्तिनो भाव तो मध्यकाळमां वारंवार हृदयंगम अभिव्यक्ति पाम्यो छे अने ज्ञानविचारने पण अखाभगत जेवामां केवी अद्‌भुत मूर्तता सांपडी छे ! हेतुनिष्ठता होवा छतां अने कविपणानो दावो न करवा छतां मध्यकालीन साहित्यना रचयिताओए जे अनेकविध प्रकारनां कविकर्मो अने काव्यसिद्धि प्रगट कर्यां छे ते काव्यरसिकोने माटे मोटी वस समान छे ने अंके करी लेवा जेवां छे. माणिक्यसुंदरना ‘पृथ्वीचंद्रचरित’नी गद्यलीला, जयवंतसूरिनां भावप्रवणता अने सुभाषितकौशल, गणपतिना ‘माधवानलकामकंदला प्रबंध’नो वर्णनवैभव, विश्वनाथ जानीना ‘प्रेमपचीशी’नी नाट्यगीतात्मक भावाभिव्यक्ति, यशोविजयजीनुं बुद्धिचातुर्य अने अलंकारचातुर्य - आवुं तो केटकेटलुं, मध्यकालीन साहित्यसृष्टिमां आपणे आपणी काव्यरसिकताने मोकळी मूकीए त्यारे, आपणी सामे आवे छे ! ‘बेशक कोई पण समयनी चोक्कस साहित्यिक परिपाटीओ होय छे अने एनो आस्वाद एनी शरतोए ज लेवानो होय छे. मध्यकाळनां प्रासचातुर्य, ध्रुवानावीन्य, पद्यगानछटावैविध्य वगेरे केटलांक कविकौशलो पण छे अने एमां आपणे रस लई शकीए तो मध्यकालीन साहित्यनो आपणो आस्वाद वधारे समृद्ध बने. आपणे जाणीए छीए के मध्यकालीन साहित्य कंई एकांतमां अंगत वाचन माटेनुं साहित्य न हतुं. प्रत्यक्ष रजूआत अने समूहभोग्यतानी दृष्टिथी ए रचातुं हतुं अने एनो एना स्वरूनिर्माणमां महत्त्वनो फाळो हतो. लोकोनी मध्यकालीन साहित्यना सर्जनमां परोक्ष सामेलगीरी हती. लोकोनी विविध जरूरियातो संतोषवा निर्मायेलुं, सर्व प्रकारनां काव्यचातुर्योनो आश्रय लेतुं अने गानादि कळाने पण पोतानी सहायमां लेतुं मध्यकालीन साहित्य शुद्ध साहित्य नहोतुं पण, कहो के, संपूर्ण साहित्य हतुं. हा, जेम संपूर्ण रंगभूमि (टोटल थिएटर) जेवी कोई वस्तु छे, तेम संपूर्ण साहित्य (टोटल लिटरेचर) जेवी कोई वस्तु पण होई शके. मध्यकालीन साहित्यने संपूर्ण साहित्यनां धोरणोथी माणवुं-नाणवुं जोईए. मध्यकाळथी आपणे आजे ठीकठीक दूर पडी गया छीए. आजे आपणे जुदी हवामां श्वसीए छीए. मध्यकाळना साहित्यनो रस माणवामां, तेथी, आपणने अवश्य केटलांक विघ्नो नडे भाषाप्रयोगोथी मांडीने सांस्कृतिक परिवेश सुधीनां, तेम छतां आ विघ्नोनुं आपणे निवारण न करी शकीए एवुं नथी, केमके ए आपणी ज पूर्व परंपरा छे. संस्कारभूमिकानी केटलीक समानता एनी साथे आपणे शोधी शकीए, एनी साथे आत्मीयता साधी शकीए तेमज एनो रस माणी शकीए. जरूर छे मात्र एना प्रत्ये अभिमुख थवानी. अंग्रेजी साहित्यथी प्रभावित कवि कान्तने एक वखते प्रेमानंद मात्र पद्यजोडु लागेला, परंतु न्हानालाले एमनी पासे प्रेमानंदनां आख्यानो वांच्यां पछी एमनो अभिप्राय बदलायेलो. आधुनिक बोधना गुजराती आदिकवि निरंजन भगत हमणां मध्यकालीन कविओ विशे नियमित रीते व्याख्यानो आपी एमने पोतीकी रीते प्रकाशित करी रह्या छे अने आपणा आधुनिक कवि लाभशंकर ठाकर पण प्रेमानंदना आख्यानना पठनना जाहेर कार्यक्रमो करी लोकोने एनो रसास्वाद करावी रह्या छे ने ए रीते मध्यकालीन साहित्यवारसानी मूल्यवत्ता स्थापित करी रह्या छे. सर्जको माटे तो मध्यकालीन साहित्य खरेखर एक अखूट खजानो छे. आजे आपणा सर्जको लोकभाषा, लोकजीवन अने तळपदी साहित्यप्रणालिओनो कार्यसाधक विनियोग करी पोतानां सर्जनोमां ताजगी अने नूतनता नथी आणी रहेला देखाता ? तो ए रीते मध्यकालीन साहित्यपरंपरानो पण नूतन सर्जनात्मक विनियोग जरूर थई शके. एनां शब्दराशि, रूढिप्रयोगो ने वाक्छटाओमांथी तो घणुं पुनर्जीवित करवा जेवुं मळी रहे. में अखाभगतना छप्पाओना अर्थविचारना लेखो लखेला एमां आधुनिक साहित्यना सर्जक कोईकोई कविमित्रोए रस लीधानुं में जाण्युं त्यारे पहेलां तो मने आश्चर्य थयेलुं पण पछी ए स्वाभाविक लागेलुं (जोके ए लेखोनुं, १९८९ना वर्षना विवेचनविषयक सन्धान क्रिटिक्स एवॉर्डने पात्र बनेलुं पुस्तक घणुं ओछुं वेचाय छे ने एनुं कशे अवलोकन थयुं नथी ए पण एक वास्तविकता छे). आ संदर्भमां भृगुराय अंजारियाए युवाकवि हरीन्द्र दवेने आपेली शीख याद आवे छे  : “तमे नवीन कविओनुं ज वाचन करो छो. एथी बहु तो आ जमानानी काव्यप्रतिभाना अनुयायी (कॅम्प फोलोअर) बनी शको. तमे जो नरसिंह, प्रेमानंद, अखो, दयाराम बराबर वांची शको तो सारुं. अर्वाचीनमां ठाकोर, कान्त अने न्हानालाल. मध्यकालीन कविता बने तेटली काव्यदोहननां पुस्तको द्वारा वधारे वांचो.” बघा ज लोको मध्यकालीन साहित्यमां रस लेता थाय के एनो अभ्यास करता थाय एवी अपेक्षा राखवानी न ज होय. पण साहित्यना रसियाओ अने अध्येताओ पासे ए ओछुवत्तुं रहे एवी इच्छा राखवामां कई वधु पडतुं नथी. शिक्षणमां मध्यकालीन साहित्यनुं स्थान टकी रहेवुं जोईए अलबत्त, विवेकपूर्वकनुं अने सूझबूझपूर्वकनुं. हमणां धोरण ११ अने १२नां गुजराती पाठ्यपुस्तकोना मध्यकालीन विभाग जोवानो प्रसंग ऊभो थयो हतो. धोरण ११मामां तो छापभूलो ने पाठदोषो एटलांबधां हतां के आमां भणनार-भणावनारनुं शुं थाय ए प्रश्न गंभीरपणे उपस्थित थतो हतो. ते उपरांत बन्ने पाठ्यपुस्तकोमांथी बीजा महत्त्वना मुद्दा पण सामे आवता हता. आपणे मध्यकालीन साहित्यकृतिनी पसंदगी केवी रीते करीए छीए ? जूनां पाठ्यपुस्तकोमांथी कृतिओ उपाडी लईए छीए के नवेसरथी श्रम करीने योग्य कृतिओ खोळीए छीए ? हाथमां आवी ते वाचना स्वीकारी लईए छीए के शुद्ध अने उत्तम वाचनानो आग्रह राखीए छीए ? पसंद करेली कृतिओमां अर्थघटननी कोई मूंझवण नथी एनी आपणे खातरी करी होय छे ? विद्यार्थीओ अने शिक्षकोने भटकवानुं न थाय ए माटे शब्दार्थनी पर्याप्त सहाय पूरी पाडेली होय छे ? में जोयुं के कदाच संपादको पण संतोषकारक रीते अर्थ न करी शके एवी पंक्तिओ आ संपादनोमां नजरे पडती हती, शब्दार्थ ने समजूती क्यांक खोटां हतां, तो आपवा जोईता घणा शब्दार्थो अपाया न हता, केटलाक शब्दोनी मध्यकाळनी विशिष्ट अर्थच्छाया पकडी शकाई न हती. आ रीते तो आपणे मध्यकालीन साहित्य प्रत्येनी अभिमुखता नहीं विमुखता केळववामां ज फाळो आपी शकीए. शाळाकक्षाए मध्यकालीन कृतिओने केवी रीते रजू करवी ए पण हवे नवेसरथी विचारवा जेवुं लागे छे. धोरण १२ना पाठ्यपुस्तकमां राजेनुं एक पद रमेश जानीना ताजेतरमां प्रसिद्ध थयेला संपादनमांथी लेवायेलुं रमेश जानीए उक्त संपादनमां हस्तप्रतमां जे ग्राम्य उच्चारण-लेखन मळ्यां ते यथावत् राखेल छे. घणा शब्दो एमां एवे स्वरूपे मळे छे जे मध्यकाळमां पण मान्य के व्यापक हता एम न कहेवाय. एथी अवबोधमां मोटो अंतराय ऊभो थाय छे ने अभ्यासीए पण जरा विचार करवा थोभवुं पडे एवुं थयुं छे. विशाळ शिक्षकवर्गनुं तो आमां शुं गजुं ? आपणे शब्दार्थनी मदद पूरी पाडीए, पण ए श्रम पछीये शुं ? मूळ कृति साथे मननो मेळ रचावो मुश्केल. आ कक्षाए तो कृतिने मान्य शब्दस्वरूपोथी ज रजू करवानुं इष्ट नहीं? अंग्रेजी भाषामां तो शेकस्पिअर पण शाळाकक्षाए आधुनिक लेबासमां ने संक्षिप्त रूपे रजू थाय छे. आपणे मध्यकालीन साहित्यने पण थोडा संमार्जन-संपादनपूर्वक न मूकवुं जोईए ? अलबत्त, मध्यकालीन साहित्यनी मध्यकालीनता नष्ट न थाय एनी काळजी राखवी जोईए. वधारे जूनां के ग्राम्य उच्चारणरूपोने स्थाने पाछळना समयनां उच्चारणरूपो स्वीकारी शकाय, परंतु मध्यकालीन शब्दोने स्थाने अर्वाचीन शब्दोनुं भरणुं न करी शकाय. दुर्बोध रहेता अंशोने छोडी दई शकाय, पण अणसमजमां कंई अगत्यनुं नीकळी न जाय एनी काळजी राखवी जोईए. सरेराश शिक्षक सहेलाईथी गति करी शके अने विशाळ विद्यार्थीवर्गनुं मन जेमां लागी शके एवां मध्यकालीन कृतिओनां संपादन-रजूआत होवां जोईए. आ अधिकार गमे ते व्यक्तिने न ज होई शके, ए काम ए माटेनी सज्जता अने सूझ धरावती व्यक्तिने हाथे ज थवानो आग्रह राखवो जोईए. कॉलेज अने युनिवर्सिटीकक्षाए अलबत्त मध्यकालीन कृतिओनी शास्त्रीय रीते संपादित थयेली अधिकृत वाचनाओ ज नियत करवी जोईए. कॉलेजकक्षाए मध्यकालीन साहित्यना एक पूरा प्रश्नपत्रमां काप न ज मूकी शकाय. ए पगलुं तो मध्यकालीन साहित्यनी विशाळताथी आपणे बेखबर छीए एम ज बतावे. मध्यकालीन साहित्याभ्यासने सांस्कृतिक अभ्यास साथे सांकळी एने जीवंत बनाववो जोईए, अने मध्यकाळना नानामोटा सर्व साहित्यप्रवाहोनी अभिज्ञता केळवाय एवो प्रयत्न करवो जोईए. पांच-छ मोटा कविओना अभ्यासमां ज मध्यकालीन साहित्य सीमित थई जाय छे ए निवारवुं जोईए. आम करवा जतां कदाच एक प्रश्नपत्र पण ओछुं पडे एवो संभव छे. तो ए माटे पण कंईक व्यवस्था विचारवी जोईए. पण मध्यकालीन साहित्यनी विशिष्ट तालीम पामेलो एक नानकडो वर्ग आपणे ऊभो नहीं करी शकीए तो उपर सूचवेली व्यवस्थाओ पार पडवा संभव नथी. जेमनी पासे संस्कृत-प्राकृत ए पूर्वपरंपरानुं पण ज्ञान छे एवी मध्यकालीन साहित्यनी पारंगत पेढी तो हवे लुप्त थवामां छे, नव-अभ्यासीओ घणा ओछा प्राप्त थई रह्या छे, एमनी सज्जता पांखी पड़ी रही छे ऊणी ऊतरी रही छे ने सूंठने गांगडे गांधी गणाई जवाय एवी स्थिति प्रवर्तवा मांडी छे. विदेशोमां मध्यकालीन गुजराती साहित्यकृतिओनां संपादनो थाय छे, मध्यकालीन परंपराओ विशे परिसंवादो योजाय छे अने मध्यकालीन साहित्यना अभ्यासनी सगवडो पण ऊभी थाय छे त्यारे आपणे आपणा आ समृद्ध वारसा परत्वे जाणे उदासीन छीए. हजु तो हस्तप्रतभंडारोमां अभ्यासीओनी राह जोतुं विपुल साहित्य पडेलुं छे. एनो उद्धार कोण करशे ? आनो कंईक नक्कर उपाय आपणे विचारवो जोईए. एम लागे छे के मध्यकालीन साहित्यना अभ्यासने ज वरेली एक विद्यासंस्था जोईए अने युनिवर्सिटीओमां अनुस्नातक कक्षाए मध्यकालीन गुजराती साहित्यनो बे प्रश्नपत्रोनो भले वैकल्पिक रूपे पण अलायदो अभ्यासक्रम जोईए. एमां हस्तप्रतवाचन, पाठसंपादन, भाषाविकास, संस्कारपरंपराओ, पद्यबंधो अने अन्य साहित्यप्रणालिओना ऊंडा झीणवटभर्या अभ्यासनो समावेश होय. मध्यकालीन कृतिओना अने एने विशेना अभ्यासोना प्रकाशननी एक मातबर व्यवस्था जोईए अने नव-अभ्यासीओना उद्यमने सत्कारतुं, नानीनानी मध्यकालीन कृतिओने तथा अभ्यासलेखोने प्रकाशित करतुं एक सामयिक पण जोईए. वडोदरानी महाराजा सयाजीराव युनिवर्सिटीमां एक वखते प्राचीन गूर्जर ग्रन्थमालानी प्रवृत्ति सध्धर रीते चाली हती ए आजे तो एक रोमांचक स्मरण अने भविष्यनुं स्वप्न बनी गयेल छे, एने पुनर्जीवन मळवुं जोईए. शब्दकोशादि साधनो पण ऊभां थवां जोईए. हा, अहीं रजू करेली अपेक्षाओ शमणांओ समी भासे एम छे. पण मध्यकालीन साहित्यना समृद्ध वारसाने आपणे वीसरवा न मागता होईए तो ए शमणांओ साचां पाडवां पडशे. भले ए दिशामां एक पछी एक नानांनानां डग भरीए. आ मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश पण ए दिशामां एक नानकडुं डग छे. ए मध्यकालीन साहित्यना अवबोधमां सहायरूप थशे अने मध्यकालीन साहित्यना आपणा अभ्यासोने वधु अर्थपूर्ण बनावशे तो एमां एनी सार्थकता हशे.

१४ मार्च १९९५
जयंत कोठारी'